Saturday, July 31, 2010

3-गार्हस्थ्य जीवन

विवाह हो जाने के पश्‍चात पिताजी म्युनिसिपैलिटी में पन्द्रह रुपये मासिक वेतन पर नौकर हो गए । उन्होंने कोई बड़ी शिक्षा प्राप्‍त न की थी । पिताजी को यह नौकरी पसन्द न आई । उन्होंने एक-दो साल के बाद नौकरी छोड़कर स्वतन्त्र व्यवसाय आरम्भ करने का प्रयत्‍न किया और कचहरी में सरकारी स्टाम्प बेचने लगे । उनके जीवन का अधिक भाग इसी व्यवसाय में व्यतीत हुआ । साधारण श्रेणी के गृहस्थ बनकर उन्होंने इसी व्यवसाय द्वारा अपनी सन्तानों को शिक्षा दी, अपने कुटुम्ब का पालन किया और अपने मुहल्ले के गणमान्य व्यक्‍तियों में गिने जाने लगे । वह रुपये का लेन-देन भी करते थे । उन्होंने तीन बैलगाड़ियां भी बनाईं थीं, जो किराये पर चला करतीं थीं । पिताजी को व्यायाम से प्रेम था । उनका शरीर बड़ा सुदृढ़ व सुडौल था । वह नियम पूर्वक अखाड़े में कुश्ती लड़ा करते थे ।

पिताजी के गृह में एक पुत्र उत्पन्न हुआ, किन्तु वह मर गया । उसके एक साल बाद लेखक (श्री रामप्रसाद) ने ज्येष्‍ठ शुक्ल पक्ष 11 सम्वत् 1954 विक्रमी को जन्म लिया । बड़े प्रयत्‍नों से मानता मानकर अनेक गंडे, ताबीज तथा कवचों द्वारा श्री दादाजी ने इस शरीर की रक्षा के लिए प्रयत्‍न किया । स्यात् बालकों का रोग गृह में प्रवेश कर गया था । अतःएव जन्म लेने के एक या दो मास पश्‍चात् ही मेरे शरीर की अवस्था भी पहले बालक जैसी होने लगी । किसी ने बताया कि सफेद खरगोश को मेरे शरीर पर घुमाकर जमीन पर छोड़ दिया जाय, यदि बीमारी होगी तो खरगोश तुरन्त मर जायेगा । कहते हैं हुआ भी ऐसा ही । एक सफेद खरगोश मेरे शरीर पर से उतारकर जैसे ही जमीन पर छोड़ा गया, वैसे ही उसने तीन-चार चक्कर काटे और मर गया । मेरे विचार में किसी अंश में यह सम्भव भी है, क्योंकि औषधि तीन प्रकार की होती हैं - (1) दैविक (2) मानुषिक, (3) पैशाचिक । पैशाचिक औषधियों में अनेक प्रकार के पशु या पक्षियों के मांस अथवा रुधिर का व्यवहार होता है, जिनका उपयोग वैद्यक के ग्रन्थों में पाया जाता है । इसमें से एक प्रयोग बड़ा ही कौतुहलोत्पादक तथा आश्‍चर्यजनक यह है कि जिस बच्चे को जभोखे (सूखा) की बीमारी हो गई हो, यदि उसके सामने चमगादड़ चीरकर लाया जाए तो एक दो मास का बालक चमगादड़ को पकड़कर उसका खून चूस लेगा और बीमारी जाती रहेगी । यह बड़ी उपयोगी औषधि है और एक महात्मा की बतलाई हुई है ।

जब मैं सात वर्ष का हुआ तो पिताजी ने स्वयं ही मुझे हिन्दी अक्षरों का बोध कराया और एक मौलवी साहब के मकतब में उर्दू पढ़ने के लिए भेज दिया । मुझे भली-भांति स्मरण है कि पिताजी अखाड़े में कुश्ती लड़ने जाते थे और अपने से बलिष्‍ठ तथा शरीर से डेढ़ गुने पट्ठे को पटक देते थे, कुछ दिनों बाद पिताजी का एक बंगाली (श्री चटर्जी) महाशय से प्रेम हो गया । चटर्जी महाशय की अंग्रेजी दवा की दुकान थी । वह बड़े भारी नशेबाज थे । एक समय में आधा छटांक चरस की चिलम उड़ाया करते थे । उन्हीं की संगति में पिताजी ने भी चरस पीना सीख लिया, जिसके कारण उनका शरीर नितान्त नष्‍ट हो गया । दस वर्ष में ही सम्पूर्ण शरीर सूखकर हड्डियां निकल आईं । चटर्जी महाशय सुरापान भी करने लगे । अतःएव उनका कलेजा बढ़ गया और उसी से उनका शरीरांत हो गया । मेरे बहुत-कुछ समझाने पर पिताजी ने चरस पीने की आदत को छोड़ा, किन्तु बहुत दिनों के बाद ।

मेरे बाद पांच बहनों और तीन भाईयों का जन्म हुआ । दादीजी ने बहुत कहा कि कुल की प्रथा के अनुसार कन्याओं को मार डाला जाए, किन्तु माताजी ने इसका विरोध किया और कन्याओं के प्राणों की रक्षा की । मेरे कुल में यह पहला ही समय था कि कन्याओं का पोषण हुआ । पर इनमें से दो बहनों और दो भाईयों का देहान्त हो गया । शेष एक भाई, जो इस समय (1927 ई०) दस वर्ष का है और तीन बहनें बचीं । माताजी के प्रयत्‍न से तीनों बहनों को अच्छी शिक्षा दी गई और उनके विवाह बड़ी धूमधाम से किए गए । इसके पूर्व हमारे कुल की कन्याएं किसी को नहीं ब्याही गईं, क्योंकि वे जीवित ही नहीं रखी जातीं थीं ।

दादाजी बड़ी सरल प्रकृति के मनुष्‍य थे । जब तक वे जीवित रहे, पैसे बेचने का ही व्यवसाय करते रहे । उनको गाय पालने का बहुत बड़ा शौक था । स्वयं ग्वालियर जाकर बड़ी-बड़ी गायें खरीद लाते थे । वहां की गायें काफी दूध देती हैं । अच्छी गाय दस या पन्द्रह सेर दूध देती है । ये गायें बड़ी सीधी भी होती हैं । दूध दोहन करते समय उनकी टांगें बांधने की आवश्यकता नहीं होती और जब जिसका जी चाहे बिना बच्चे के दूध दोहन कर सकता है । बचपन में मैं बहुधा जाकर गाय के थन में मुँह लगाकर दूध पिया करता था । वास्तव में वहां की गायें दर्शनीय होती हैं ।

दादाजी मुझे खूब दूध पिलाया करते थे । उन्हें अट्ठारह गोटी (बघिया बग्घा) खेलने का बड़ा शौक था । सायंकाल के समय नित्य शिव-मन्दिर में जाकर दो घण्टे तक परमात्मा का भजन किया करते थे । उनका लगभग पचपन वर्ष की आयु में स्वर्गारोहण हुआ ।

बाल्यकाल से ही पिताजी मेरी शिक्षा का अधिक ध्यान रखते थे और जरा-सी भूल करने पर बहुत पीटते थे । मुझे अब भी भली-भांति स्मरण है कि जब मैं नागरी के अक्षर लिखना सीख रहा था तो मुझे 'उ' लिखना न आया । मैने बहुत प्रयत्‍न किया । पर जब पिताजी कचहरी चले गए तो मैं भी खेलने चला गया । पिताजी ने कचहरी से आकर मुझ से 'उ' लिखवाया तो मैं लिख न सका । उन्हें मालूम हो गया कि मैं खेलने चला गया था, इस पर उन्होंने मुझे बन्दूक के लोहे के गज से इतना पीटा कि गज टेढ़ा पड़ गया । भागकर दादीजी के पास चला गया, तब बचा । मैं छोटेपन से ही बहुत उद्दण्ड था । पिताजी के पर्याप्‍त शासन रखने पर भी बहुत उद्दण्डता करता था । एक समय किसी के बाग में जाकर आड़ू के वृक्षों में से सब आड़ू तोड़ डाले । माली पीछे दौड़ा, किन्तु मैं उनके हाथ न आया । माली ने सब आड़ू पिताजी के सामने ला रखे । उस दिन पिताजी ने मुझे इतना पीटा कि मैं दो दिन तक उठ न सका । इसी प्रकार खूब पिटता था, किन्तु उद्दण्डता अवश्य करता था । शायद उस बचपन की मार से ही यह शरीर बहुत कठोर तथा सहनशील बन गया ।

5 comments:

  1. दादी जी ने बहुत कहा कुल की प्रथाओं के अनुसार कन्याओं को मार दिया जाए?????????? यह सब क्या है और किस जमाने की बात है, मेरी समझ में कुछ नहीं आया.....
    खैर, चिट्ठाजगत में आपका स्वागत है... हिंदी ब्लागिंग को आप नई ऊंचाई तक पहुंचाएं, यही कामना है....
    इंटरनेट के जरिए अतिरिक्त आमदनी के इच्छुक साथी यहां पधार सकते हैं - http://gharkibaaten.blogspot.com

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  2. बहुत ही सुन्‍दर अभिव्‍यक्ति

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  3. सरिताजी, ये मेरी नहीं अपितु "रामप्रसाद बिस्मिल"जी की आत्मकथा है।
    उन्होने इसे फ़ाँसीके बस दो दिनों पहले कारागारमें पूर्ण किया था।

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  4. कुछ कमेंटस्‌ गलतीसे मै डिलीट कर गया।
    क्षमाप्रार्थी हूँ।

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  5. इस सुंदर से नए चिट्ठे के साथ आपका हिंदी ब्‍लॉग जगत में स्‍वागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!

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