Monday, August 23, 2010

चालबाजी

कई महानुभावों ने गुप्‍त समिति नियमादि बनाकर मुझे दिखाये । उनमें एक नियम यह भी था कि जो व्यक्‍ति समिति का कार्य करें, उन्हें समिति की ओर से कुछ मासिक दिया जाये । मैंने इस नियम को अनिवार्य रूप से मानना अस्वीकार किया । मैं यहां तक सहमत था कि जो व्यक्‍ति सर्व-प्रकारेण समिति के कार्य में अपना समय व्यतीत करें, उनको केवल गुजारा-मात्र समिति की ओर से दिया जा सकता है । जो लोग किसी व्यवस्था को करते हैं, उन्हें किसी प्रकार का मासिक भत्ता देना उचित न होगा । जिन्हें समिति के कोष में से कुछ दिया जाये, उनको भी कुछ व्यवसाय करने का प्रबन्ध करना उचित है, ताकि ये लोग सर्वथा समिति की सहायता पर निर्भर रहकर निरे भाड़े के टट्टू न बन जाएं । भाड़े के टट्टुओं से समिति का कार्य लेना, जिसमें कतिपय मनुष्यों के प्राणों का उत्तरदायित्व हो और थोड़ा-सा भेद खुलने से ही बड़ा भयंकर परिणाम हो सकता है, उचित नहीं है । तत्पश्‍चात् उन महानुभावों की सम्मति हुई कि एक निश्‍चित कोष समिति के सदस्यों को देने के निमित्त स्थापित किया जाये, जिसकी आय का ब्यौरा इस प्रकार हो कि डकैतियों से जितना धन प्राप्‍त हो उसका आधा समिति के कार्यों में व्यय किया जाए और आधा समिति के सदस्यों को बराबर बराबर बांट दिया जाए । इस प्रकार के परामर्श से मैं सहमत न हो सका और मैंने इस प्रकार की गुप्‍त समिति में, जिसका एक उद्देश्य पेट-पूर्ति हो, योग देने से इन्कार कर दिया । जब मेरी इस प्रकार की दृष्‍टि देखी तो उन महानुभावों ने आपस में षड्यंत्र रचा ।

जब मैंने उन महानुभावों के परामर्श तथा नियमादि को स्वीकार न किया तो वे चुप हो गए । मैं भी कुछ समझ न सका कि जो लोग मुझ में इतनी श्रद्धा रखते थे, जिन्होंने कई प्रकार की आशाएं देखकर मुझ से क्रान्तिकारी दल का पुनर्संगठन करने की प्रार्थनाएं की थीं, अनेकों प्रकार की उम्मीदें बंधाई थीं, सब कार्य स्वयं करने के वचन दिए थे, वे लोग ही मुझसे इस प्रकार के नियम बनाने की मांग करने लगे । मुझे बड़ा आश्‍चर्य हुआ । प्रथम प्रयत्‍न में, जिस समय मैं मैनपुरी षड्यन्त्र के सदस्यों के सहित कार्य करता था, उस समय हममें से कोई भी अपने व्यक्तिगत (प्राइवेट) खर्च में समिति का धन व्यय करना पूर्ण पाप समझता था । जहाँ तक हो सकता अपने खर्च के लिए माता-पिता से कुछ लाकर प्रत्येक सदस्य समिति के कार्यों में धन व्यय किया करता था । इसका कारण मेरा साहस इस प्रकार के नियमों में सहमत होने का न हो सका । मैंने विचार किया कि यदि कोई समय आया और किसी प्रकार अधिक धन प्राप्‍त हुआ, तो कुछ सदस्य ऐसे स्वार्थी हो सकते हैं, जो अधिक धन लेने की इच्छा करें, और आपस में वैमनस्य बढ़े । जिसके परिणाम बड़े भयंकर हो सकते हैं । अतः इस प्रकार के कार्य में योग देना मैंने उचित न समझा ।

मेरी यह अवस्था देख इन लोगों ने आपस में ष्‌डयन्त्र रचा, कि जिस प्रकार मैं कहूँ वे नियम स्वीकार कर लें और विश्‍वास दिलाकर जितने अस्‍त्र-शस्‍त्र मेरे पास हों, उनको मुझसे लेकर सब पर अपना आधिपत्य जमा लें । यदि मैं अस्‍त्र-शस्‍त्र मांगूं तो मुझ से युद्ध किया जाए और आवश्यकता पड़े तो मुझे कहीं ले जाकर जान से मार दिया जाये । तीन सज्जनों ने इस प्रकार ष्‌डयन्त्र रचा और मुझसे चालबाजी करनी चाही । दैवात् उनमें से एक सदस्य के मन में कुछ दया आ गई । उसने आकर मुझसे सब भेद कह दिया । मुझे सुनकर बड़ा खेद हुआ कि जिन व्यक्‍तियों को मैं पिता तुल्य मानकर श्रद्धा करता हूँ वे ही मेरे नाश करने के लिए इस प्रकार नीचता का कार्य करने को उद्यत हैं । मैं सम्भल गया । मैं उन लोगों से सतर्क रहने लगा कि पुनः प्रयाग जैसी घटना न घटे । जिन महाशय ने मुझसे भेद कहा था, उनकी उत्कट इच्छा थी कि वह एक रिवाल्वर रखें और इस इच्छा पूर्ति के लिए उन्होंने मेरा विश्‍वासपात्र बनने के कारण मुझसे भेद कहा था । मुझ से एक रिवाल्वर मांगा कि मैं उन्हें कुछ समय के लिए रिवाल्वर दे दूँ । यदि मैं उन्हें रिवाल्वर दे देता तो वह उसे हजम कर जाते ! मैं कर ही क्या सकता था । बाद को बड़ी कठिनता से इन चालबाजियों से अपना पीछा छुड़ाया ।

अब सब ओर से चित्त को हटाकर बड़े मनोयोग से नौकरी में समय व्यतीत होने लगा । कुछ रुपया इकट्ठा करने के विचार से, कुछ कमीशन इत्यादि का प्रबन्ध कर लेता था । इस प्रकार पिताजी का थोड़ा सा भार बंटाया । सबसे छोटी बहन का विवाह नहीं हुआ था । पिताजी के सामर्थ्य के बाहर था कि उस बहन का विवाह किसी भले घर में कर सकते । मैंने रुपया जमा करके बहन का विवाह एक अच्छे जमींदार के यहां कर दिया । पिताजी का भार उतर गया । अब केवल माता, पिता, दादी तथा छोटे भाई थे, जिनके भोजन का प्रबन्ध होना अधिक कठिन काम न था । अब माता जी की उत्कट इच्छा हुई कि मैं भी विवाह कर लूँ । कई अच्छे-अच्छे विवाह-सम्बन्ध के सुयोग एकत्रित हुए । किन्तु मैं विचारता था कि जब तक पर्याप्‍त धन पास न हो, विवाह-बन्धन में फंसना ठीक नहीं । मैंने स्वतन्त्र कार्य आरम्भ किया, नौकरी छोड़ दी । एक मित्र ने सहायता दी । मैंने रेशमी कपड़ा बुनने का एक निजी कारखाना खोल दिया । बड़े मनोयोग तथा परिश्रम से कार्य किया । परमात्मा की दया से अच्छी सफलता हुई । एक-डेढ़ साल में ही मेरा कारखाना चमक गया । तीन-चार हजार की पूंजी से कार्य आरम्भ किया था । एक साल बाद सब खर्च निकालकर लगभग दो हजार रुपये का लाभ हुआ । मेरा उत्साह और भी बढ़ा । मैंने एक दो व्यवसाय और भी प्रारम्भ किए । उसी समय मालूम हुआ कि संयुक्त प्रान्त के क्रान्तिकारी दल का पुनर्संगठन हो रहा है । कार्यारम्भ हो गया है । मैंने भी योग देने का वचन दिया, किन्तु उस समय मैं अपने व्यवसाय में बुरी तरह फंसा हुआ था । मैंने छः मास का समय लिया कि छः मास में मैं अपने व्यवसाय को अपने साथी को सौंप दूंगा, और अपने आपको उसमें से निकाल लूंगा, तब स्वतन्त्रतापूर्वक क्रान्तिकारी कार्य में योग दे सकूंगा । छः मास तक मैंने अपने कारखानों का सब काम साफ करके अपने साझी को सब काम समझा दिया, तत्पश्‍चात् अपने वचनानुसार कार्य में योग देने का उद्योग किया ।

Sunday, August 22, 2010

नोट बनाना

इसी बीच मेरे एक मित्र की एक नोट बनाने वाले महाशय से भेंट हुई । उन्होंने बड़ी बड़ी आशाएँ बांधी । बड़ी लम्बी-लम्बी स्कीम बांधने के पश्‍चात् मुझ से कहा कि एक नोट बनाने वाले से भेंट हुई है । बड़ा दक्ष पुरुष है । मुझे भी बना हुआ नोट देखने की बड़ी उत्कट इच्छा थी । मैंने उन सज्जन के दर्शन की इच्छा प्रकट की । जब उक्‍त नोट बनाने वाले महाशय मुझे मिले तो बड़ी कौतूहलोत्पादक बातें की । मैंने कहा कि मैं स्थान तथा आर्थिक सहायता दूंगा, नोट बनाओ । जिस प्रकार उन्होंने मुझ से कहा, मैंने सब प्रबन्ध कर दिया, किन्तु मैंने कह दिया था कि नोट बनाते समय मैं वहाँ उपस्थित रहूँगा, मुझे बताना कुछ मत, पर मैं नोट बनाने की रीति अवश्य देखना चाहता हूँ । पहले-पहल उन्होंने दस रुपए का नोट बनाने का निश्‍चय किया । मुझसे एक दस रुपये का नया साफ नोट मंगाया । नौ रुपये दवा खरीदने के बहाने से ले गए । रात्रि में नोट बनाने का प्रबन्ध हुआ । दो शीशे लाए । कुछ कागज भी लाए । दो तीन शीशियों में कुछ दवाई थी । दवाइयों को मिलाकर एक प्लेट में सादे कागज पानी में भिगोए । मैं जो साफ नोट लाया था, उस पर एक सादा कागज लगाकर दोनों को दूसरी दवा डालकर धोया । फिर दो सादे कागजों में लपेट एक पुड़िया सी बनाई और अपने एक साथी को दी कि उसे आग पर गरम कर लाए । आग वहां से कुछ दूर पर जलती थी । कुछ समय तक वह आग पर गरम करता रहा और पुड़िया लाकर वापस दे दी । नोट बनाने वाले ने पुड़िया खोलकर दोनों शीशों को दवा में धोया और फीते से शीशों को बांधकर रख दिया और कहा कि दो घण्टे में नोट बन जाएगा । शीशे रख दिये । बातचीत होने लगी । कहने लगा, 'इस प्रयोग में बड़ा व्यय होता है । छोटे मोटे नोट बनाने में कोई लाभ नहीं । बड़े नोट बनाने चाहियें, जिससे पर्याप्‍त धन की प्राप्‍ति हो ।' इस प्रकार मुझे भी सिखा देने का वचन दिया । मुझे कुछ कार्य था । मैं जाने लगा तो वह भी चला गया । दो घण्टे के बाद आने का निश्‍चय हुआ ।

मैं विचारने लगा कि किस प्रकार एक नोट के ऊपर दूसरा सादा कागज रखने से नोट बन जाएगा । मैंने प्रेस का काम सीखा था । थोड़ी बहुत फोटोग्राफी भी जानता था । साइन्स (विज्ञान) का भी अध्ययन किया था । कुछ समझ में न आया कि नोट सीधा कैसे छपेगा । सबसे बड़ी बात तो यह थी कि नम्बर कैसे छपेंगे । मुझे बड़ा भारी सन्देह हुआ । दो घण्टे बाद मैं जब गया तो रिवाल्वर भरकर जेब में डालकर ले गया । यथासमय वह महाशय आये । उन्होंने शीशे खोलकर कागज खोले । एक मेरा लाया हुआ नोट और दूसरा एक दस रुपये का नोट उसी के ऊपर से उतारकर सुखाया । कहा - 'कितना साफ नोट है !' मैंने हाथ में लेकर देखा । दोनों नोटों के नम्बर मिलाये । नम्बर नितान्त भिन्न-भिन्न थे । मैंने जेब से रिवाल्वर निकाल नोट बनाने वाले महाशय की छाती पर रख कर कहा 'बदमाश ! इस तरह ठगता फिरता है ?' वह कांपकर गिर पड़ा । मैंने उसको उसकी मूर्खता समझाई कि यह ढ़ोंग ग्रामवासियों के सामने चल सकता है, अनजान पढ़े-लिखे भी धोखे में आ सकते हैं । किन्तु तू मुझे धोखा देने आया है ! अन्त में मैंने उससे प्रतिज्ञा पत्र लिखाकर, उस पर उसके हाथों की दसों अंगुलियों के निशान लगवाये कि वह ऐसा काम न करेगा । दसों अंगुलियों के निशान देने में उसने कुछ ढ़ील की । मैंने रिवाल्वर उठाकर कहा कि गोली चलती है, उसने तुरन्त दसों अंगुलियों के निशान बना दिये । वह बुरी तरह कांप रहा था । मेरे उन्नीस रुपये खर्च हो चुके थे । मैंने दोनों नोट रख लिए और शीशे, दवाएं इत्यादि सब छीन लीं कि मित्रों को तमाशा दिखाऊंगा । तत्पश्‍चात् उन महाशय को विदा किया । उसने किया यह था कि जब अपने साथी को आग पर गरम करने के लिए कागज की पुड़िया दी थी, उसी समय वह साथी सादे कागज की पुड़िया बदल कर दूसरी पुड़िया ले आया जिसमें दोनों नोट थे । इस प्रकार नोट बन गया । इस प्रकार का एक बड़ा भारी दल है, जो सारे भारतवर्ष में ठगी का काम करके हजारों रुपये पैदा करता है । मैं एक सज्जन को जानता हूँ जिन्होंने इसी प्रकार पचास हजार से अधिक रुपए पैदा कर लिए । होता यह है कि ये लोग अपने एजेण्ट रखते हैं । वे एजेंट साधारण पुरुषों के पास जाकर जोट बनाने की कथा कहते हैं । आता धन किसे बुरा लगता है? वे नोट बनवाते हैं । इस प्रकार पहले दस का नोट बनाकर दिया, वे बाजार में बेच आये । सौ रुपये का बनाकर दिया वह भी बाजार में चलाया, और चल क्यों न जाये? इस प्रकार के सब नोट असली होते हैं । वे तो केवल चाल में रख दिये जाते हैं । इसके बाद कहा कि हजार या पाँच सौ का नोट लाओ तो कुछ धन भी मिले । जैसे-तैसे करके बेचारा एक हजार का नोट लाया । सादा कागज रखकर शीशे में बांध दिया । हजार का नोट जेब में रखा और चम्पत हुए ! नोट के मालिक रास्ता देखते हैं, वहां नोट बनाने वाले का पता ही नहीं । अन्त में विवश हो शीशों को खोला जाता है, तो सादे कागजों के अलावा कुछ नहीं मिलता, वे अपने सिर पर हाथ मारकर रह जाते हैं । इस डर से कि यदि पुलिस को मालूम हो गया तो और लेने के देने पड़ेंगे, किसी से कुछ कह भी नहीं सकते । कलेजा मसोसकर रह जाते हैं । पुलिस ने इस प्रकार के कुछ अभियुक्‍तों को गिरफ्तार भी किया, किन्तु ये लोग पुलिस को नियमपूर्वक चौथ देते रहते हैं और इस कारण बचे रहते हैं ।

Saturday, August 21, 2010

पुनः संगठन

जिन महानुभावों को मैं पूजनीय दृष्‍टि से देखता था, उन्हीं ने अपनी इच्छा प्रकट की कि मैं क्रान्तिकारी दल का पुनः संगठन करूं । गत जीवन के अनुभव से मेरा हृदय अत्यंत दुखित था । मेरा साहस न देखकर इन लोगों ने बहुत उत्साहित किया और कहा कि हम आपको केवल निरीक्षण का कार्य देंगे, बाकी सब कार्य स्वयं करेंगे । कुछ मनुष्य हमने जुटा लिए हैं, धन की कमी न होगी, आदि । मान्य पुरुषों की प्रवृत्ति देखकर मैंने भी स्वीकृति दे दी । मेरे पास जो अस्‍त्र-शस्‍त्र थे, मैंने दिए । जो दल उन्होंने एकत्रित किया था, उसके नेता से मुझे मिलाया । उसकी वीरता की बड़ी प्रशंसा की । वह एक अशिक्षित ग्रामीण पुरुष था । मेरी समझ में आ गया कि यह बदमाशों का या स्वार्थी जनों का कोई संगठन है । मुझ से उस दल के नेता ने दल का कार्य निरीक्षण करने की प्रार्थना की । दल में कई फौज से आए हुए लड़ाई पर से वापस किए गए व्यक्‍ति भी थे । मुझे इस प्रकार के व्यक्‍तियों से कभी कोई काम न पड़ा था । मैं दो-एक महानुभावों को साथ ले इन लोगों का कार्य देखने के लिए गया ।

थोड़े दिनों बाद इस दल के नेता महाशय एक वेश्या को भी ले आए । उसे रिवाल्वर दिखाया कि यदि कहीं गई तो गोली से मार दी जाएगी । यह समाचार सुन उसी दल के दूसरे सदस्य ने बड़ा क्रोध प्रकाशित किया और मेरे पास खबर भेजने का प्रबन्ध किया । उसी समय एक दूसरा आदमी पकड़ा गया, जो नेता महाशय को जानता था । नेता महाशय रिवाल्वर तथा कुछ सोने के आभूषणों सहित गिरफ्तार हो गए । उनकी वीरता की बड़ी प्रशंसा सुनी थी, जो इस प्रकार प्रकट हुई कि कई आदमियों के नाम पुलिस को बताए और इकबाल कर लिया ! लगभग तीस-चालीस आदमी पकड़े गए ।

एक दूसरा व्यक्‍ति जो बहुत वीर था, पुलिस उसके पीछे पड़ी हुई थी । एक दिन पुलिस कप्‍तान ने सवार तथा तीस-चालीस बन्दूक वाले सिपाही लेकर उनके घर में उसे घेर लिया । उसने छत पर चढ़कर दोनाली कारतूसी बन्दूक से लगभग तीन सौ फायर किए । बन्दूक गरम होकर गल गई । पुलिस वाले समझे कि घर में कई आदमी हैं । सब पुलिस वाले छिपकर आड़ में से सुबह की प्रतीक्षा करने लगे । उसने मौका पाया । मकान के पीछे से कूद पड़ा, एक सिपाही ने देख लिया । उसने सिपाही की नाक पर रिवाल्वर का कुन्दा मारा । सिपाही चिल्लाया । सिपाही के चिल्लाते ही मकान में से एक फायर हुआ । पुलिस वाले समझे मकान ही में है । सिपाही को धोखा हुआ होगा । बस, वह जंगल में निकल गया । अपनी स्‍त्री को एक टोपीदार बन्दूक दे आया था कि यदि चिल्लाहट हो तो एक फायर कर देना । ऐसा ही हुआ । और वह निकल गया । जंगल में जाकर एक दूसरे दल से मिला । जंगल में भी एक समय पुलिस कप्‍तान से सामना हो गया । गोली चली । उसके भी पैर में छर्रे लगे थे । अब यह बड़े साहसी हो गए थे । समझ गए थे कि पुलिस वाले किस प्रकार समय पर आड़ में छिप जाते हैं । इन लोगों का दल छिन्न-भिन्न हो गया था । अतः उन्होंने मेरे पास आश्रय लेना चाहा । मैंने बड़ी कठिनता से अपना पीछा छुड़ाया । तत्पश्‍चात् जंगल में जाकर ये दूसरे दल से मिल गए । वहाँ पर दुराचार के कारण जंगल के नेता ने इन्हें गोली से मार दिया । इस प्रकार सब छिन्न-भिन्न हो गया । जो पकड़े गए उन पर कई डकैतियां चली । किसी को तीस साल, किसी को पचास साल, किसी को बीस साल की सजाएं हुईं । एक बेचारा, जिसका किसी डकैती से कोई सम्बन्ध न था, केवल शत्रुता के कारण फंसा दिया गया । उसे फांसी हो गई और सब प्रकार डकैतियों में सम्मिलित था, जिसके पास डकैती का माल तथा कुछ हथियार पाए गए । पुलिस से गोली भी चली, उसे पहले फांसी की सजा की आज्ञा हुई, पर पैरवी अच्छी हुई, अतएव हाईकोर्ट से फांसी की सजा माफ हो गई, केवल पांच वर्ष की सजा रह गई । जेल वालों से मिलकर उसने डकैतियों में शिनाख्त न होने दी थी । इस प्रकार इस दल की समाप्‍ति हुई । दैवयोग से हमारे अस्‍त्र बच गए । केवल एक ही रिवाल्वर पकड़ा गया ।

Friday, August 20, 2010

स्वतन्त्र जीवन

राजकीय घोषणा के पश्‍चात जब मैं शाहजहांपुर आया तो शहर की अद्‍भुत दशा देखी । कोई पास तक खड़े होने का साहस न करता था ! जिसके पास मैं जाकर खड़ा हो जाता था, वह नमस्ते कर चल देता था । पुलिस का बड़ा प्रकोप था । प्रत्येक समय वह छाया की भांति पीछे-पीछे फिरा करती थी । इस प्रकार का जीवन कब तक व्यतीत किया जाए ? मैंने कपड़ा बुनने का काम सीखना आरम्भ किया । जुलाहे बड़ा कष्‍ट देते थे । कोई काम सिखाना नहीं चाहता था । बड़ी कठिनता से मैंने कुछ काम सीखा । उसी समय एक कारखाने में मैनेजरी का स्थान खाली हुआ । मैंने उस स्थान के लिये प्रयत्‍न किया । मुझ से पाँच सौ रुपये की जमानत माँगी गई । मेरी दशा बड़ी शोचनीय थी । तीन-तीन दिवस तक भोजन प्राप्‍त नहीं होता था, क्योंकि मैंने प्रतिज्ञा की थी कि किसी से कुछ सहायता न लूँगा । पिता जी से बिना कुछ कहे मैं चला आया था । मैं पाँच सौ रुपये कहाँ से लाता । मैंने दो-एक मित्रों से केवल दो सौ रुपए की जमानत देने की प्रार्थना की । उन्होंने साफ इन्कार कर दिया । मेरे हृदय पर वज्रपात हुआ । संसार अंधकारमय दिखाई देता था । पर बाद को एक मित्र की कृपा से नौकरी मिल गई । अब अवस्था कुछ सुधरी । मैं सभ्य पुरुषों की भांति समय व्यतीत करने लगा । मेरे पास भी चार पैसे हो गए । वे ही मित्र, जिनसे मैंने दो सौ रुपए की जमानत देने की प्रार्थना की थी, अब मेरे पास चार-चार हजार रुपयों की थैली अपनी बन्दूक, लाइसेंस आदि सब डाल जाते थे कि मेरे यहां उनकी वस्तुएं सुरक्षित रहेंगी ! समय के इस फेर को देखकर मुझे हँसी आती थी ।

इस प्रकार कुछ काल व्यतीत हुआ । दो-चार ऐसे पुरुषों से भेंट हुई, जिन को पहले मैं बड़ी श्रद्धा की दृष्‍टि से देखता था । उन लोगों ने मेरी पलायनावस्था के सम्बन्ध में कुछ समाचार सुने थे । मुझ से मिलकर वे बड़े प्रसन्न हुए । मेरी लिखी हुई पुस्तकें भी देखीं । इस समय मैं तीसरी पुस्तक 'कैथेराइन' लिख चुका था । मुझे पुस्तकों के व्यवसाय में बहुत घाटा हो चुका था । मैंने माला का प्रकाशन स्थगित कर दिया । 'कैथेराइन' एक पुस्तक प्रकाशक को दे दी । उन्होंने बड़ी कृपा कर उस पुस्तक को थोड़े हेर-फेर के साथ प्रकाशित कर दिया । 'कैथेराइन' को देखकर मेरे इष्‍ट मित्रों को बड़ा हर्ष हुआ । उन्होंने मुझे पुस्तक लिखते रहने के लिए बड़ा उत्साहित किया । मैंने 'स्वदेशी रंग' नामक एक और पुस्तक लिख कर एक पुस्तक प्रकाशक को दी । वह भी प्रकाशित हो गई ।

बड़े परिश्रम के साथ मैंने एक पुस्तक 'क्रान्तिकारी जीवन' लिखी । 'क्रान्तिकारी जीवन' को कई प्रकाशकों ने देखा, पर किसी का साहस न हो सका कि उसको प्रकाशित करें ! आगरा, कानपुर, कलकत्ता इत्यादि कई स्थानों में घूम कर पुस्तक मेरे पास लौट आई । कई मासिक पत्रिकाओं में 'राम' तथा 'अज्ञात' नाम से मेरे लेख प्रकाशित हुआ करते थे । लोग बड़े चाव से उन लेखों का पाठ करते थे । मैंने किसी स्थान पर लेखन शैली का नियमपूर्वक अध्ययन न किया था । बैठे-बैठे खाली समय में ही कुछ लिखा करता और प्रकाशनार्थ भेज दिया करता था । अधिकतर बंगला तथा अंग्रेजी की पुस्तकों से अनुवाद करने का ही विचार था । थोड़े समय के पश्‍चात श्रीयुत अरविन्द घोष की बंगला पुस्तक 'यौगिक साधन' का अनुवाद किया । दो-एक पुस्तक-प्रकाशकों को दिखाया पर वे अति अल्प पारितोषिक देकर पुस्तक लेना चाहते थे । आजकल के समय में हिन्दी के लेखकों तथा अनुवादकों की अधिकता के कारण पुस्तक प्रकाशकों को भी बड़ा अभिमान हो गया है । बड़ी कठिनता से बनारस के एक प्रकाशक ने 'यौगिक साधन' प्रकाशित करने का वचन दिया ।

पर थोड़े दिनों में वह स्वयं ही अपने साहित्य मन्दिर में ताला डालकर कहीं पधार गए । पुस्तक का अब तक कोई पता न लगा । पुस्तक अति उत्तम थी । प्रकाशित हो जाने से हिन्दी साहित्य-सेवियों को अच्छा लाभ होता । मेरे पास जो 'बोलशेविक करतूत' तथा 'मन की लहर' की प्रतियां बची थीं, वे मैंने लागत से भी कम मूल्य पर कलकत्ता के एक व्यक्‍ति श्रीयुत दीनानाथ सगतिया को दे दीं । बहुत थोड़ी पुस्तकें मैंने बेची थीं । दीनानाथ महाशय पुस्तकें हड़प कर गए । मैंने नोटिस दिया । नालिश की । लगभग चार सौ रुपये की डिग्री भी हुई, किन्तु दीनानाथ महाशय का कहीं पता न चला । वह कलकत्ता छोड़कर पटना गए । पटना से भी कई गरीबों का रुपया मार कर कहीं अन्तर्धान हो गए । अनुभवहीनता से इस प्रकार ठोकरें खानी पड़ीं । कोई पथ-प्रदर्शक तथा सहायक नहीं था, जिस से परामर्श करता । व्यर्थ के उद्योग धन्धों तथा स्वतन्त्र कार्यों में शक्‍ति का व्यय करता रहा ।

सात

गुजरांच्या त्या पराक्रमी प्रसंगावर परत तशी उंची गाठणे केवळ अशक्य!
माझी देखील कित्येक दिवस हीच समजूत होती. पण परवा आमच्या वर्ध्याचेच कवी, साहित्यिक ’शिरीष गो. देशपांडे’ यांचे हे काव्य वाचण्यात आले. आता वाटते की "सात" न भूतो असेल, पण न भविष्यति खचितच नाही.

”धुमसत होते अंतर त्यातच ठिणगी पडली जशी
सुरुंग उडला जसा; निघाला सहा शिपायांनिशी
राव इरेचा असा; पेटता डोंबच त्याच्या मनी
कडकडत्या खड्गात नाचती तृषार्त सौदामिनी
सूर्यरथाचे अश्व निखळले आले पृथ्वीवरी
चौखुर उधळत, धरणी विंधत गेले वार्‍यावरी
शिवतेजाच्या प्रखर शलाका सरसरल्या सत्वरी
काळोखच्या छाताडावर थै थै नर्तन करी
सात सतींचे पुण्य आणखी सप्तर्षींचा धीर
वीर न वेडे पीर निघाले सात शिवाचे तीर....”

Sunday, August 15, 2010

14-पं० गेंदालाल दीक्षित

आपका जन्म यमुना-तट पर बटेश्‍वर के निकट 'मई' ग्राम में हुआ था । आपने मैट्रिक्यूलेशन (दसवां) दर्जा अंग्रेजी का पास किया था । आप जब ओरैया जिला इटावा में डी० ए० वी० स्कूल में टीचर थे, तब आपने शिवाजी समिति की स्थापना की थी, जिसका उद्देश्य था शिवाजी की भांति दल बना कर लूटमार करवाना, उसमें से चौथ लेकर हथियार खरीदना और उस दल में बांटना । इसकी सफलता के लिए आप रियासत से हथियार ला रहे थे जो कुछ नवयुवकों की असावधानी के कारण आगरा में स्टेशन के निकट पकड़ लिए गए थे । आप बड़े वीर तथा उत्साही थे । शान्त बैठना जानते ही न थे । नवयुवकों को सदैव कुछ न कुछ उपदेश देते रहते थे । एक एक सप्‍ताह तक बूट तथा वर्दी न उतारते थे । जब आप ब्रह्मचारी जी के पास सहायता लेने गए तो दुर्भाग्यवश गिरफ्तार कर लिए गए । ब्रह्मचारी के दल ने अंग्रेजी राज्य में कई डाके डाले थे । डाके डालकर ये लोग चम्बल के बीहड़ों में छिप जाते थे । सरकारी राज्य की ओर से ग्वालियर महाराज को लिखा गया । इस दल के पकड़ने का प्रबन्ध किया गया । सरकार ने तो हिन्दुस्तानी फौज भी भेजी थी, जो आगरा जिले में चम्बल के किनारे बहुत दिनों तक पड़ी रही । पुलिस सवार तैनात किए फिर भी ये लोग भयभीत न हुए । विश्‍वासघात में पकड़े गए । इन्हीं का एक आदमी पुलिस ने मिला लिया । डाका डालने के लिए दूर एक स्थान निश्‍चित किया गया, जहां तक जाने के लिए एक पड़ाव देना पड़ता था । चलते-चलते सब थक गए, पड़ाव दिया गया । जो आदमी पुलिस से मिला हुआ था, उसने भोजन लाने को कहा, क्योंकि उसके किसी निकट सम्बंधी का मकान निकट था । वह पूड़ी बनवा कर लाया । सब पूड़ी खाने लग गए । ब्रह्मचारी जी जो सदैव अपने हाथ से बनाकर भोजन करते थे या आलू अथवा घुइयां भून कर खाते थे, उन्होंने भी उस दिन पूड़ी खाना स्वीकार किया । सब भूखे तो थे ही, खाने लगे । ब्रह्मचारी जी ने एक पूड़ी ही खाई उनकी जबान ऐंठने लगी और जो अधिक खा गए थे वे गिर गए । पूरी लाने वाला पानी लेने के बहाने चल दिया । पूड़ियों में विष मिला हुआ था । ब्रह्मचारी जी ने बन्दूक उठाकर पूरी लाने वाले पर गोली चलाई । ब्रह्मचारी जी का गोली चलाना था कि चारों ओर से गोली चलने लगी । पुलिस छिपी हुई थी । गोली चलने से ब्रह्मचारी जी के कई गोली लगीं । तमाम शरीर घायल हो गया । पं० गेंदालाल जी की आँख में एक छर्रा लगा । बाईं आँख जाती रही । कुछ आदमी जहर के कारण मरे, कुछ लोगी से मारे गए, इस प्रकार 80 आदमियों में से 25-30 जान से मारे गए । सब पकड़ कर ग्वालियर के किले में बन्द कर दिए गए । किले में हम लोग जब पण्डित जी से मिले, तब चिट्ठी भेजकर उन्होंने हमको सब हाल बताया । एक दिन किले में हम लोगों पर भी सन्देह हो गया था, बड़ी कठिनता से एक अधिकारी की सहायता से हम लोग निकल सके ।

जब मैनपुरी षड्यन्त्र का अभियोग चला, पण्डित गेंदालालजी को सरकार ने ग्वालियर राज्य से मँगाया । ग्वालियर के किले का जलवायु बड़ा ही हानिकारक था । पण्डित जी को क्षय रोग हो गया था । मैनपुरी स्टेशन से जेल जाते समय ग्यारह बार रास्ते में बैठ कर जेल पहुंचे । पुलिस ने जब हाल पूछा तो उन्होंने कहा - "बालकों को क्यों गिरफ्तार किया है ? मैं हाल बताऊँगा ।" पुलिस को विश्‍वास हो गया । आपको जेल से निकाल कर दूसरे सरकारी गवाहों के निकट रख दिया । वहाँ पर सब विवरण जान रात्रि के समय एक और सरकारी गवाह को लेकर पण्डित जी भाग खड़े हुए । भाग कर एक गांव में एक कोठरी में ठहरे । साथी कुछ काम के लिए बाजार गया और फिर लौट कर न आया, बाहर से कोठरी की जंजीर बन्द कर गया । पण्डित जी उसी कोठरी में तीन दिन बिना अन्न-जल बन्द रहे । समझे कि साथी किसी आपत्ति में फंस गया होगा, अन्त में किसी प्रकार जंजीर खुलवाई । रुपये वह साथ ही ले गया था । पास एक पैसा भी न था । कोटा से पैदल आगरा आए । किसी प्रकार अपने घर पहुँचे । बहुत बीमार थे । पिता ने यह समझ कर कि घर वालों पर आपत्ति न आए, पुलिस को सूचना देनी चाही । पण्डित जी ने पिता से बड़ी विनय-प्रार्थना की और दो-तीन दिन में घर छोड़ दिया । हम लोगों की बहुत खोज की । किसी का कुछ पता न पाया, दिल्ली में एक प्याऊ पर पानी पिलाने की नौकरी कर ली । अवस्था दिनों दिन बिगड़ रही थी । रोग भीषण रूप धारण कर रहा था । छोटे भाई तथा पत्‍नी को बुलाया । भाई किंकर्त्तव्यविमूढ़ ! वह क्या कर सकता था ? सरकारी अस्पताल में भर्ती कराने ले गया । पण्डित जी की धर्मपत्‍नी को दूसरे स्थान में भेजकर जब वह अस्पताल आया, तो जो देखा उसे लिखते हुए लेखनी कम्पायमान होती है ! पण्डित जी शरीर त्याग चुके थे । केवल उनका मृत शरीर मात्र ही पड़ा हुआ था । स्वदेश की कार्य-सिद्धि में पं० गेंदालाल जी दीक्षित ने जिस निःसहाय अवस्था में अन्तिम बलिदान दिया, उसकी स्वप्‍न में भी आशंका नहीं थी । पण्डित जी की प्रबल इच्छा थी कि उनकी मृत्यु गोली लगकर हो । भारतवर्ष की एक महान आत्मा विलीन हो गई और देश में किसी ने जाना भी नहीं ! आपकी विस्तृत जीवनी 'प्रभा' मासिक पत्रिका में प्रकाशित हो चुकी है । मैनपुरी षड्यन्त्र के मुख्य नेता आप ही समझ गए थे । इस षड्यन्त्र में विशेषताएं ये हुईं कि नेताओं में से केवल दो व्यक्‍ति पुलिस के हाथ आए, जिनमें गेंदालाल दीक्षित एक सरकारी गवाह को लेकर भाग गए, श्रीयुत शिवकृष्ण जेल से भाग गए, फिर हाथ न आए । छः मास के पश्‍चात जिन्हें सजा हुई वे भी राजकीय घोषणा से मुक्‍त कर दिए गए । खुफिया पुलिस विभाग का क्रोध पूर्णतया शांत न हो सका और उनकी बदनामी भी इस केस में बहुत हुई ।

13-पलायनावस्था

मैं ग्राम में ग्रामवासियों की भांति उसी प्रकार के कपड़े पहनकर रहने लगा । देखने वाले अधिक से अधिक इतना समझ सकते थे कि मैं शहर में रह रहा हूँ, सम्भव है कुछ पढ़ा भी होऊँ । खेती के कामों में मैंने विशेष ध्यान नहीं दिया । शरीर तो हष्‍ट-पुष्‍ट था ही, थोड़े ही दिनों में अच्छा-खासा किसान बन गया । उस कठोर भूमि में खेती करना कोई सरल काम नहीं । बबूल, नीम के अतिरिक्‍त कोई एक-दो आम के वृक्ष कहीं भले ही दिखाई दे जाएँ । बाकी यह नितान्त मरुभूमि है । खेत में जाता था । थोड़ी ही देर में झरबेरी के कांटों से पैर भर जाते । पहले-पहल तो बड़ा कष्‍ट प्रतीत हुआ । कुछ समय पश्‍चात् अभ्यास हो गया । जितना खेत उस देश का एक बलिष्‍ठ पुरुष दिन भर जोत सकता था, उतना मैं भी जोत लेता था । मेरा चेहरा बिल्कुल काला पड़ गया । थोड़े दिनों के लिये मैं शाहजहाँपुर की ओर घूमने आया तो कुछ लोग मुझे पहचान भी न सके ! मैं रात को शाहजहाँपुर पहुँचा । गाड़ी छूट गई । दिन के समय पैदल जा रहा था कि एक पुलिस वाले ने पहचान लिया । वह और पुलिस वालों को लेने के लिए गया । मैं भागा, पहले दिन का ही थका हुआ था । लगभग बीस मील पहले दिन पैदल चला था । उस दिन भी पैंतीस मील पैदल चलना पड़ा ।

मेरे माता-पिता ने सहायता की । मेरा समय अच्छी प्रकार व्यतीत हो गया । माताजी की पूँजी तो मैंने नष्‍ट कर दी । पिताजी से सरकार की ओर से कहा गया कि लड़के की गिरफ्तारी के वारंट की पूर्ति के लिए लड़के का हिस्सा, जो उसके दादा की जायदाद होगी, नीलाम किया जाएगा । पिताजी घबड़ाकर दो हजार के मकान को आठ सौ में तथा और दूसरी चीजें भी थोड़े दामों में बेचकर शाहजहाँपुर छोड़कर भाग गए । दो बहनों का विवाह हुआ । जो कुछ रहा बचा था, वह भी व्यय हो गया । माता-पिता की हालत फिर निर्धनों जैसी हो गई । समिति के जो दूसरे सदस्य भागे हुए थे, उनकी बहुत बुरी दशा हुई । महीनों चनों पर ही समय काटना पड़ा । दो चार रुपये जो मित्रों तथा सहायकों से मिल जाते थे, उन्हीं पर ही गुजर होता था । पहनने के कपड़े तक न थे । विवश हो रिवाल्वर तथा बन्दूकें बेचीं, तब दिन कटे । किसी से कुछ कह भी न सकते थे और गिरफ्तारी के भय के कारण कोई व्यवस्था या नौकरी भी न कर सकते थे ।

उसी अवस्था में मुझे व्यवसाय करने की सूझी। मैंने अपने सहपाठी तथा मित्र श्रीयुत सुशीलचन्द्र सेन, जिनका देहान्त हो चुका था, की स्मृति में बंगला भाषा का अध्ययन किया । मेरे छोटे भाई का जन्म हुआ तो मैंने उसका नाम सुशीलचन्द्र रखा । मैंने विचारा कि एक पुस्तकमाला निकालूं, लाभ भी होगा । कार्य भी सरल है । बंगला से हिन्दी में पुस्तकों का अनुवाद करके प्रकाशित करवाऊँगा । अनुभव कुछ भी नहीं था । बंगला पुस्तक 'निहिलिस्ट रहस्य' का अनुवाद प्रारम्भ कर दिया । जिस प्रकार अनुवाद किया, उसका स्मरण कर कई बार हंसी आ जाती है । कई बैल, गाय तथा भैंस लेकर ऊसर में चराने के लिए जाया करता था । खाली बैठा रहना पड़ता था, अतएव कापी-पैंसिल साथ ले जाता और पुस्तक का अनुवाद किया करता था । पशु जब कहीं दूर निकल जाते तब अनुवाद छोड़ लाठी लेकर उन्हें हकारने जाया करता था । कुछ समय के लिए एक साधु की कुटी पर जाकर रहा । वहाँ अधिक समय अनुवाद करने में व्यतीत करता था । खाने के लिए आटा ले जाता था । चार-पाँच दिन के लिए आटा इकट्ठा रखता था । भोजन स्वयं पका लेता था । अब पुस्तक ठीक हो गई, तो 'सुशील-माला' के नाम से ग्रन्थमाला निकाली । पुस्तक का नाम 'बोलशेविकों की करतूत' रखा । दूसरी पुस्तक 'मन की लहर' छपवाई । इस व्यवसाय में लगभग पांच सौ रुपये की हानि हुई । जब राजकीय घोषणा हुई और राजनैतिक कैदी छोड़े गए, तब शाहजहाँपुर आकर कोई व्यवसाय करने का विचार हुआ, ताकि माता-पिता की कुछ सेवा हो सके । विचार किया करता था कि इस जीवन में अब फिर कभी आजादी से शाहजहाँपुर में विचरण न कर सकूँगा, पर परमात्मा की लीला अपार है । वे दिन आये । मैं पुनः शाहजहाँपुर का निवासी हुआ ।