Saturday, July 31, 2010

आवाहन

हिंद देशा शिकशील कधी रे, ही जगाची रिती
शौर्याच्या वामांगीच शोभती, मैत्री अन्‌ शांती


शौर्याविण जो हि बोलला, जगीं शान्तीची भाषा
त्यास स्वतःस मुळी न उरली, सन्मानाची आशा


शौर्याच्या कथांनी भरली, पाने इतिहासाची
आता देतो पहा उदाहरणे, तुझ्याच पुत्रांची


जरि कां भेकड असतां शिवबा, चुड़ामण ज़ाट
दिल्ली दरबारी वाचले असते, तयांनी शांतिपाठ
’औरंग्या’ने कां दिली असती, त्यांना सनद स्वराज्याची
अथवा देता, कां स्विकारली असती ऐसी भीक उपकाराची


कां प्रताप, मान लवुन शत्रुंपुढे असता गेला
कां शमल्या असत्या , त्याने वीरांगनांच्या जोहाराच्या ज्वाला
गवताच्या भाकऱ्या खाऊन जगला, तो राजपूत वीर
म्हणूनच गाती आज पवाडे, कवी अन्‌ शाहीर


कां, आले असतां, गनिम फोडण्या, देवीची मुर्ती
छत्रसाल नच गेला करण्या, तयांशी संधिपुर्ती
तलवार काढुनी, कापले त्याने, तत्क्षणींच शीर सात
म्हणून वंदण्या तयास जुळति, आज आपुले हात


’शांतिदूत’ हो वाचावा तुम्हीं, बलिदानाचा शीख-इतिहास
सुधरावे तुमचे तुम्हीच, आधि होण्या जगीं परिहास
"मयुरेश" विनवी भारत देशा, जागवी आपुले स्वत्व
शौर्याने सन्मान मिळवी, हेच शाश्वत तत्व.
                                                   
                                                          - Mayuresh S. Deshapnde
क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल
सबका लिया सहारा
पर नर व्याघ्र सुयोधन तुमसे
कहो, कहाँ कब हारा ?

क्षमाशील हो रिपु-समक्ष
तुम हुये विनीत जितना ही
दुष्ट कौरवों ने तुमको
कायर समझा उतना ही। 

अत्याचार सहन करने का
कुफल यही होता है
पौरुष का आतंक मनुज
कोमल होकर खोता है।

 क्षमा शोभती उस भुजंग को
जिसके पास गरल हो
उसको क्या जो दंतहीन
विषरहित, विनीत, सरल हो ।

 तीन दिवस तक पंथ मांगते
रघुपति सिन्धु किनारे,बैठे पढ़ते रहे छन्द
अनुनय के प्यारे-प्यारे । 
उत्तर में जब एक नाद भी
उठा नहीं सागर से
उठी अधीर धधक पौरुष की
आग राम के शर से ।

 सिन्धु देह धर त्राहि-त्राहि
करता आ गिरा शरण में
चरण पूज दासता ग्रहण की
बँधा मूढ़ बन्धन में। 

सच पूछो , तो शर में ही
बसती है दीप्ति विनय की
सन्धि-वचन संपूज्य उसी का
जिसमें शक्ति विजय की । 

सहनशीलता, क्षमा, दया को
तभी पूजता जग है
बल का दर्प चमकता उसके
पीछे जब जगमग है।




-रामधारी सिंह "दिनकर" 

3-गार्हस्थ्य जीवन

विवाह हो जाने के पश्‍चात पिताजी म्युनिसिपैलिटी में पन्द्रह रुपये मासिक वेतन पर नौकर हो गए । उन्होंने कोई बड़ी शिक्षा प्राप्‍त न की थी । पिताजी को यह नौकरी पसन्द न आई । उन्होंने एक-दो साल के बाद नौकरी छोड़कर स्वतन्त्र व्यवसाय आरम्भ करने का प्रयत्‍न किया और कचहरी में सरकारी स्टाम्प बेचने लगे । उनके जीवन का अधिक भाग इसी व्यवसाय में व्यतीत हुआ । साधारण श्रेणी के गृहस्थ बनकर उन्होंने इसी व्यवसाय द्वारा अपनी सन्तानों को शिक्षा दी, अपने कुटुम्ब का पालन किया और अपने मुहल्ले के गणमान्य व्यक्‍तियों में गिने जाने लगे । वह रुपये का लेन-देन भी करते थे । उन्होंने तीन बैलगाड़ियां भी बनाईं थीं, जो किराये पर चला करतीं थीं । पिताजी को व्यायाम से प्रेम था । उनका शरीर बड़ा सुदृढ़ व सुडौल था । वह नियम पूर्वक अखाड़े में कुश्ती लड़ा करते थे ।

पिताजी के गृह में एक पुत्र उत्पन्न हुआ, किन्तु वह मर गया । उसके एक साल बाद लेखक (श्री रामप्रसाद) ने ज्येष्‍ठ शुक्ल पक्ष 11 सम्वत् 1954 विक्रमी को जन्म लिया । बड़े प्रयत्‍नों से मानता मानकर अनेक गंडे, ताबीज तथा कवचों द्वारा श्री दादाजी ने इस शरीर की रक्षा के लिए प्रयत्‍न किया । स्यात् बालकों का रोग गृह में प्रवेश कर गया था । अतःएव जन्म लेने के एक या दो मास पश्‍चात् ही मेरे शरीर की अवस्था भी पहले बालक जैसी होने लगी । किसी ने बताया कि सफेद खरगोश को मेरे शरीर पर घुमाकर जमीन पर छोड़ दिया जाय, यदि बीमारी होगी तो खरगोश तुरन्त मर जायेगा । कहते हैं हुआ भी ऐसा ही । एक सफेद खरगोश मेरे शरीर पर से उतारकर जैसे ही जमीन पर छोड़ा गया, वैसे ही उसने तीन-चार चक्कर काटे और मर गया । मेरे विचार में किसी अंश में यह सम्भव भी है, क्योंकि औषधि तीन प्रकार की होती हैं - (1) दैविक (2) मानुषिक, (3) पैशाचिक । पैशाचिक औषधियों में अनेक प्रकार के पशु या पक्षियों के मांस अथवा रुधिर का व्यवहार होता है, जिनका उपयोग वैद्यक के ग्रन्थों में पाया जाता है । इसमें से एक प्रयोग बड़ा ही कौतुहलोत्पादक तथा आश्‍चर्यजनक यह है कि जिस बच्चे को जभोखे (सूखा) की बीमारी हो गई हो, यदि उसके सामने चमगादड़ चीरकर लाया जाए तो एक दो मास का बालक चमगादड़ को पकड़कर उसका खून चूस लेगा और बीमारी जाती रहेगी । यह बड़ी उपयोगी औषधि है और एक महात्मा की बतलाई हुई है ।

जब मैं सात वर्ष का हुआ तो पिताजी ने स्वयं ही मुझे हिन्दी अक्षरों का बोध कराया और एक मौलवी साहब के मकतब में उर्दू पढ़ने के लिए भेज दिया । मुझे भली-भांति स्मरण है कि पिताजी अखाड़े में कुश्ती लड़ने जाते थे और अपने से बलिष्‍ठ तथा शरीर से डेढ़ गुने पट्ठे को पटक देते थे, कुछ दिनों बाद पिताजी का एक बंगाली (श्री चटर्जी) महाशय से प्रेम हो गया । चटर्जी महाशय की अंग्रेजी दवा की दुकान थी । वह बड़े भारी नशेबाज थे । एक समय में आधा छटांक चरस की चिलम उड़ाया करते थे । उन्हीं की संगति में पिताजी ने भी चरस पीना सीख लिया, जिसके कारण उनका शरीर नितान्त नष्‍ट हो गया । दस वर्ष में ही सम्पूर्ण शरीर सूखकर हड्डियां निकल आईं । चटर्जी महाशय सुरापान भी करने लगे । अतःएव उनका कलेजा बढ़ गया और उसी से उनका शरीरांत हो गया । मेरे बहुत-कुछ समझाने पर पिताजी ने चरस पीने की आदत को छोड़ा, किन्तु बहुत दिनों के बाद ।

मेरे बाद पांच बहनों और तीन भाईयों का जन्म हुआ । दादीजी ने बहुत कहा कि कुल की प्रथा के अनुसार कन्याओं को मार डाला जाए, किन्तु माताजी ने इसका विरोध किया और कन्याओं के प्राणों की रक्षा की । मेरे कुल में यह पहला ही समय था कि कन्याओं का पोषण हुआ । पर इनमें से दो बहनों और दो भाईयों का देहान्त हो गया । शेष एक भाई, जो इस समय (1927 ई०) दस वर्ष का है और तीन बहनें बचीं । माताजी के प्रयत्‍न से तीनों बहनों को अच्छी शिक्षा दी गई और उनके विवाह बड़ी धूमधाम से किए गए । इसके पूर्व हमारे कुल की कन्याएं किसी को नहीं ब्याही गईं, क्योंकि वे जीवित ही नहीं रखी जातीं थीं ।

दादाजी बड़ी सरल प्रकृति के मनुष्‍य थे । जब तक वे जीवित रहे, पैसे बेचने का ही व्यवसाय करते रहे । उनको गाय पालने का बहुत बड़ा शौक था । स्वयं ग्वालियर जाकर बड़ी-बड़ी गायें खरीद लाते थे । वहां की गायें काफी दूध देती हैं । अच्छी गाय दस या पन्द्रह सेर दूध देती है । ये गायें बड़ी सीधी भी होती हैं । दूध दोहन करते समय उनकी टांगें बांधने की आवश्यकता नहीं होती और जब जिसका जी चाहे बिना बच्चे के दूध दोहन कर सकता है । बचपन में मैं बहुधा जाकर गाय के थन में मुँह लगाकर दूध पिया करता था । वास्तव में वहां की गायें दर्शनीय होती हैं ।

दादाजी मुझे खूब दूध पिलाया करते थे । उन्हें अट्ठारह गोटी (बघिया बग्घा) खेलने का बड़ा शौक था । सायंकाल के समय नित्य शिव-मन्दिर में जाकर दो घण्टे तक परमात्मा का भजन किया करते थे । उनका लगभग पचपन वर्ष की आयु में स्वर्गारोहण हुआ ।

बाल्यकाल से ही पिताजी मेरी शिक्षा का अधिक ध्यान रखते थे और जरा-सी भूल करने पर बहुत पीटते थे । मुझे अब भी भली-भांति स्मरण है कि जब मैं नागरी के अक्षर लिखना सीख रहा था तो मुझे 'उ' लिखना न आया । मैने बहुत प्रयत्‍न किया । पर जब पिताजी कचहरी चले गए तो मैं भी खेलने चला गया । पिताजी ने कचहरी से आकर मुझ से 'उ' लिखवाया तो मैं लिख न सका । उन्हें मालूम हो गया कि मैं खेलने चला गया था, इस पर उन्होंने मुझे बन्दूक के लोहे के गज से इतना पीटा कि गज टेढ़ा पड़ गया । भागकर दादीजी के पास चला गया, तब बचा । मैं छोटेपन से ही बहुत उद्दण्ड था । पिताजी के पर्याप्‍त शासन रखने पर भी बहुत उद्दण्डता करता था । एक समय किसी के बाग में जाकर आड़ू के वृक्षों में से सब आड़ू तोड़ डाले । माली पीछे दौड़ा, किन्तु मैं उनके हाथ न आया । माली ने सब आड़ू पिताजी के सामने ला रखे । उस दिन पिताजी ने मुझे इतना पीटा कि मैं दो दिन तक उठ न सका । इसी प्रकार खूब पिटता था, किन्तु उद्दण्डता अवश्य करता था । शायद उस बचपन की मार से ही यह शरीर बहुत कठोर तथा सहनशील बन गया ।

Friday, July 30, 2010

2-दुर्दिन



अनेक प्रयत्‍न करने के पश्‍चात् शाहाजहाँपुर में एक अत्तार महोदय की दुकान पर श्रीयुत् नारायणलाल जी को तीन रुपये मासिक वेतन की नौकरी मिली । तीन रुपये मासिक में दुर्भिक्ष के समय चार प्राणियों का किस प्रकार निर्वाह हो सकता था ? दादीजी ने बहुत प्रयत्‍न किया कि अपने आप केवल एक समय आधे पेट भोजन करके बच्चों का पेट पाला जाय, किन्तु फिर भी निर्वाह न हो सका । बाजरा, कुकनी, सामा, ज्वार इत्यादि खाकर दिन काटने चाहे, किन्तु फिर भी गुजारा न हुआ तब आधा बथुआ, चना या कोई दूसरा साग, जो सब से सस्ता हो उसको लेकर, सबसे सस्ता अनाज उसमें आधा मिलाकर थोड़ा-सा नमक डालकर उसे स्वयं खाती, लड़कों को चना या जौ की रोटी देतीं और इसी प्रकार दादाजी भी समय व्यतीत करते थे । बड़ी कठिनता से आधे पेट खाकर दिन तो कट जाता, किन्तु पेट में घोटूँ दबाकर रात काटना कठिन हो जाता । यह तो भोजन की अवस्था थी, वस्‍त्र तथा रहने के स्थान का किराया कहाँ से आता ? दादाजी ने चाहा कि भले घरों में मजदूरी ही मिल जाए, किन्तु अनजान व्यक्‍ति का, जिसकी भाषा भी अपने देश की भाषा से न मिलती हो, भले घरों में सहसा कौन विश्‍वास कर सकता था ? कोई मजदूरी पर अपना अनाज भी पीसने को न देता था ! डर था कि दुर्भिक्ष का समय है, खा लेगी । बहुत प्रयत्‍न करने के बाद एक-दो महिलाएं अपने घर पर अनाज पिसवाने पर राजी हुईं, किन्तु पुरानी काम करने वालियों को कैसे जवाब दें ? इसी प्रकार अड़चनों के बाद पाँच-सात सेर अनाज पीसने को मिल जाता, जिसकी पिसाई उस समय एक पैसा प्रति पंसेरी थी । बड़े कठिनता से आधे पेट एक समय भोजन करके तीन-चार घण्टों तक पीसकर एक पैसा या डेढ़ पैसा मिलता । फिर घर पर आकर बच्चों के लिए भोजन तैयार करना पड़ता । तो-तीन वर्ष तक यही अवस्था रही । बहुधा दादाजी देश को लौट चलने का विचार प्रकट करते, किन्तु दादीजी का यही उत्तर होता कि जिनके कारण देश छूटा, धन-सामग्री सब नष्‍ट हुई और ये दिन देखने पड़े अब उन्हीं के पैरों में सिर रखकर दासत्व स्वीकार करने से इसी प्रकार प्राण दे देना कहीं श्रेष्‍ठ है, ये दिन सदैव न रहेंगे । सब प्रकार के संकट सहे किन्तु दादीजी देश को लौटकर न गई ।

चार-पांच वर्ष में जब कुछ सज्जन परिचित हो गए और जान लिया कि स्‍त्री भले घर की है, कुसमय पड़ने से दीन-दशा को प्राप्‍त हुई है, तब बहुत सी महिलाएं विश्‍वास करने लगीं । दुर्भिक्ष भी दूर हो गया था । कभी-कभी किसी सज्जन के यहाँ से कुछ दान मिल जाता, कोई ब्राह्मण-भोजन करा देता । इसी प्रकार समय व्यतीत होने लगा । कई महानुभावों ने, जिनके कोई सन्तान न थी और धनादि पर्याप्‍त था, दादाजी को अनेक प्रकार के प्रलोभन दिये कि वह अपना एक लड़का उन्हें दे दें और जितना धन मांगे उनकी भेंट किया जाय । किन्तु दादीजी आदर्श माता थी, उन्होंने इस प्रकार के प्रलोभनों की किंचित-मात्र भी परवाह न की और अपने बच्चों का किसी-न-किसी प्रकार पालन करती रही ।

मेहनत-मजदूरी तथा ब्राह्मण-वृत्ति द्वारा कुछ धन एकत्र हुआ । कुछ महानुभावों के कहने से पिताजी के किसी पाठशाला में शिक्षा पाने का प्रबन्ध कर दिया गया । श्री दादाजी ने भी कुछ प्रयत्‍न किया, उनका वेतन भी बढ़ गया और वह सात रुपये मासिक पाने लगे । इसके बाद उन्होंने नौकरी छोड़, पैसे तथा दुअन्नी, चवन्नी इत्यादि बेचने की दुकान की । पाँच-सात आने रोज पैदा होने लगे । जो दुर्दिन आये थे, प्रयत्‍न तथा साहस से दूर होने लगे । इसका सब श्रेय श्री दादी जी को ही है । जिस साहस तथा धैर्य से उन्होंने काम लिया वह वास्तव में किसी दैवी शक्‍ति की सहायता ही कही जाएगी । अन्यथा एक अशिक्षित ग्रामीण महिला की क्या सामर्थ्य है कि वह नितान्त अपरिचित स्थान में जाकर मेहनत मजदूरी करके अपना तथा अपने बच्चों का पेट पालन करते हुए उनको शिक्षित बनाये और फिर ऐसी परिस्थितियों में जब कि उसने अभी अपने जीवन में घर से बाहर पैर न रखा हो और जो ऐसे कट्टर देश की रहने वाली हो कि जहाँ पर प्रत्येक हिन्दू प्रथा का पूर्णतया पालन किया जाता हो, जहाँ के निवासी अपनी प्रथाओं की रक्षा के लिए प्राणों की किंचित-मात्र भी चिन्ता न करते हों । किसी ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य की कुलवधू का क्या साहस, जो डेढ़ हाथ का घूंघट निकाले बिना एक घर से दूसरे घर पर चली जाए । शूद्र जाति की वधुओं के लिए भी यही नियम है कि वे रास्ते में बिना घूंघट निकाले न जाएँ । शूद्रों का पहनावा ही अलग है, ताकि उन्हें देखकर ही दूर से पहचान लिया जाए कि यह किसी नीच जाति की स्‍त्री है । ये प्रथाएँ इतनी प्रचलित हैं कि उन्होंने अत्याचार का रूप धारण कर लिया है । एक समय किसी चमार की वधू, जो अंग्रेजी राज्य से विवाह करके गई थी, कुल-प्रथानुसार जमींदार के घर पैर छूने के लिए गई । वह पैरों में बिछुवे (नुपूर) पहने हुए थी और सब पहनावा चमारों का पहने थी । जमींदार महोदय की निगाह उसके पैरों पर पड़ी । पूछने पर मालूम हुआ कि चमार की बहू है । जमींदार साहब जूता पहनकर आए और उसके पैरों पर खड़े होकर इस जोर से दबाया कि उसकी अंगुलियाँ कट गईं । उन्होंने कहा कि यदि चमारों की बहुऐं बिछुवा पहनेंगीं तो ऊँची जाति के घर की स्‍त्रियां क्या पहनेंगीं ? ये लोग नितान्त अशिक्षित तथा मूर्ख हैं किन्तु जाति-अभिमान में चूर रहते हैं । गरीब-से-गरीब अशिक्षित ब्राह्मण या क्षत्रिय, चाहे वह किसी आयु का हो, यदि शूद्र जाति की बस्ती में से गुजरे तो चाहे कितना ही धनी या वृद्ध कोई शूद्र क्यों न हो, उसको उठकर पालागन या जुहार करनी ही पड़ेगी । यदि ऐसा न करे तो उसी समय वह ब्राह्मण या क्षत्रिय उसे जूतों से मार सकता है और सब उस शूद्र का ही दोष बताकर उसका तिरस्कार करेंगे ! यदि किसी कन्या या बहू पर व्यभिचारिणी होने का सन्देह किया जाए तो उसे बिना किसी विचार के मारकर चम्बल में प्रवाहित कर दिया जाता है । इसी प्रकार यदि किसी विधवा पर व्यभिचार या किसी प्रकार आचरण-भ्रष्‍ठ होने का दोष लगाया जाए तो चाहे वह गर्भवती ही क्यों न हो, उसे तुरन्त ही काटकर चम्बल में पहुंचा दें और किसी को कानों-कान भी खबर न होने दें । वहाँ के मनुष्य भी सदाचारी होते हैं । सबकी बहू-बेटी को अपनी बहू-बेटी समझते हैं । स्‍त्रियों की मान-मर्यादा की रक्षा के लिए प्राण देने में भी सभी नहीं हिचकिचाते । इस प्रकार के देश में विवाहित होकर सब प्रकार की प्रथाओं को देखते हुए भी इतना साहस करना यह दादी जी का ही काम था ।

परमात्मा की दया से दुर्दिन समाप्‍त हुए । पिताजी कुछ शिक्षा पा गए और एक मकान भी श्री दादाजी ने खरीद लिया । दरवाजे-दरवाजे भटकने वाले कुटुम्ब को शान्तिपूर्वक बैठने का स्थान मिल गया और फिर श्री पिताजी के विवाह करने का विचार हुआ । दादीजी, दादाजी तथा पिताजी के साथ अपने मायके गईं । वहीं पिताजी का विवाह कर दिया । वहाँ दो चार मास रहकर सब लोग वधू की विदा कराके साथ लिवा लाए ।

Thursday, July 29, 2010

1-आत्म-चरित्र

1-आत्म-चरित्र


तोमरधार में चम्बल नदी के किनारे पर दो ग्राम आबाद हैं, जो ग्वालियर राज्य में बहुत ही प्रसिद्ध हैं, क्योंकि इन ग्रामों के निवासी बड़े उद्दण्ड हैं । वे राज्य की सत्ता की कोई चिन्ता नहीं करते । जमीदारों का यह हाल है कि जिस साल उनके मन में आता है राज्य को भूमि-कर देते हैं और जिस साल उनकी इच्छा नहीं होती, मालगुजारी देने से साफ इन्कार कर जाते हैं । यदि तहसीलदार या कोई और राज्य का अधिकारी आता है तो ये जमींदार बीहड़ में चले जाते हैं और महीनों बीहड़ों में ही पड़े रहते हैं । उनके पशु भी वहीं रहते हैं और भोजनादि भी बीहड़ों में ही होता है । घर पर कोई ऐसा मूल्यवान पदार्थ नहीं छोड़ते जिसे नीलाम करके मालगुजारी वसूल की जा सके । एक जमींदार के सम्बंध में कथा प्रचलित है कि मालगुजारी न देने के कारण ही उनको कुछ भूमि माफी में मिल गई । पहले तो कई साल तक भागे रहे । एक बार धोखे से पकड़ लिये गए तो तहसील के अधिकारियों ने उन्हें बहुत सताया । कई दिन तक बिना खाना-पानी के बँधा रहने दिया । अन्त में जलाने की धमकी दे, पैरों पर सूखी घास डालकर आग लगवा दी । किन्तु उन जमींदार महोदय ने भूमि-कर देना स्वीकार न किया और यही उत्तर दिया कि ग्वालियर महाराज के कोष में मेरे कर न देने से ही घाटा न पड़ जायेगा । संसार क्या जानेगा कि अमुक व्यक्‍ति उद्दंडता के कारण ही अपना समय व्यतीत करता है । राज्य को लिखा गया, जिसका परिणाम यह हुआ कि उतनी भूमि उन महाशय को माफी में दे दी गई । इसी प्रकार एक समय इन ग्रामों के निवासियों को एक अद्‍भुत खेल सूझा । उन्होंने महाराज के रिसाले के साठ ऊँट चुराकर बीहड़ों में छिपा दिए । राज्य को लिखा गया; जिस पर राज्य की ओर से आज्ञा हुई कि दोनों ग्राम तोप लगाकर उड़वा दिए जाएँ । न जाने किस प्रकार समझाने-बुझाने से वे ऊँट वापस किए गए और अधिकारियों को समझाया गया कि इतने बड़े राज्य में थोड़े से वीर लोगों का निवास है, इनका विध्वंस न करना ही उचित होगा । तब तोपें लौटाईं गईं और ग्राम उड़ाये जाने से बचे । ये लोग अब राज्य-निवासियों को तो अधिक नहीं सताते, किन्तु बहुधा अंग्रेजी राज्य में आकर उपद्रव कर जाते हैं और अमीरों के मकानों पर छापा मारकर रात-ही-रात बीहड़ में दाखिल हो जाते हैं । बीहड़ में पहुँच जाने पर पुलिस या फौज कोई भी उनका बाल बाँका नहीं कर सकती । ये दोनों ग्राम अंग्रेजी राज्य की सीमा से लगभग पन्द्रह मील की दूरी पर चम्बल नदी के तट पर हैं । यहीं के एक प्रसिद्ध वंश में मेरे पितामह श्री नारायणलाल जी का जन्म हुआ था । वह कौटुम्बिक कलह और अपनी भाभी के असहनीय दुर्व्यवहार के कारण मजबूर हो अपनी जन्मभूमि छोड़ इधर-उधर भटकते रहे । अन्त में अपनी धर्मपत्‍नी और दो पुत्रों के साथ वह शाहजहाँपुर पहुँचे । उनके इन्हीं दो पुत्रों में ज्येष्‍ठ पुत्र श्री मुरलीधर जी मेरे पिता हैं । उस समय इनकी अवस्था आठ वर्ष और उनके छोटे पुत्र - मेरे चाचा (श्री कल्याणमल) की उम्र छः वर्ष की थी । इस समय यहां दुर्भिक्ष का भयंकर प्रकोप था ।

वंदे मातरम्‌





वेदमंत्रोंसे हमें है वंद्य "वंदे मातरम्‌"
राष्ट्रभक्ती प्रेरणा का गान "वंदे मातरम्‌"


वेदवाणी‍कृष्णवाणी ने विवेचित जो किया
ॐकार अनहत नाद का नवरूप "वंदे मातरम्‌"


जान्हवी कालिंदी गोदा सिंधू क्षिप्रा नर्मदा
बहती धाराओं का कलरव, शब्द "वंदे मातरम्‌"


शीश ऊँचा कर खडे है विंध्य सह्याद्री हिमेश
इनसे भिडते बादलों की गरज "वंदे मातरम्‌"


आसिंधुसिंधूपर्यंत फ़ैली है हमारी मातृभू
मातृभूमी अर्चना का स्तोत्र "वंदे मातरम्‌"


राम‍कृष्णादि सुरोंसे पूज्य हमको भरतभू
स्वयं ’गायत्री’ है ये, औ ’मंत्र’ "वंदे मातरम्‌"


स्वर्गकी आशा नहीं, मोक्ष हमको ना मिले
बस जन्म हो इस देश में, और गाये "वंदे मातरम्‌"




कठिण शब्दोंके अर्थ :
  1. वेदवाणी‍-वेद-वेदान्त
  2. कृष्णवाणी
    -श्रीमद्बगवद्गीता


  3. जान्हवी-गंगा
  4. कालिंदी-यमुना
  5. हिमेश-हिमालय
  6. आसिंधुसिंधूपर्यंत-भारतकी सर्वोत्कृष्ट व्याख्या
                                        "सिंधु नदीसे लेकर सिन्धू अर्थात्‌ समुद्र तक"





Wednesday, July 28, 2010

I will be posting "Autobiography of Ram Prasad Bismil" in parts.
Hope it will inspire us.

Urdu and Indian nationalism-A.G. NOORANI




THE linguistic genocide of Urdu in the north, in Uttar Pradesh particularly, owes as much to malevolence on the part of Congress leaders like G.B. Pant, Puroshottam Das Tandon and Sampurnanand as to the Sangh Parivar which has held that "Urdu is a foreign language which is a living monument to our slavery. It must be eradicated from the page of existence. Urdu is the language of themalechhas [a derogatory word for non-Hindus] which has done great harm to our national ends by attaining popularity in India". This was said in 1933 (The Jana Sangh; Craig Baxter; pages 19-20).
K.C. Kanda's superb compilation strikingly demonstrates that like the slogan Inquilab (Revolution), Urdu poetry inspired India's revolutionaries and patriots during the freedom struggle (Masterpieces of Urdu Poetry; Sterling; pages 449, Rs.350). From Sauda in the 18th century right down to Ali Sardar Jafri and Kaifi Azmi in our times, inspiring poems by 38 poets have been included in this volume. Each poem is printed in the original Persian script as well as in Roman script with an English translation alongside.
Second only to Hindu revivalists, Muslim revivalists and politicians, particularly the Muslim Leaguers, inflicted grave harm on Urdu by giving it a communal colour to promote their own ends.
This volume, like any such compilation, exposes their ignorance and their sordid designs. Poets such as Ram Parshad Bismil, Durga Sahay Saroor, Brij Narain Chakbast, Raghupati Sahai Firaq and Jagan Nath Azad rendered high service to Urdu. So has K.C. Kanda. This is his 12th compilation (all published by Sterling). He is now working on Mohammed Iqbal's poetry. His selection is catholic and judicious.
Kanda holds that a great poem (reproduced here), the favourite of revolutionaries as they went to the gallows, was written by Ram Parshad Bismil. The poet scholar Jafri told this writer, on September 17, 1995, that it was written by Bismil Azimabadi. It is not for this writer to pronounce who is right:
We are now raring to die for our country's sake
Let's see how much of strength the assassin can display!
O traveller on the path of love, do not drop mid-way,
It is the distance of the goal that glorifies the chase.
Standing by the gallows the hangman makes a call,
Come, if there be any, by the martyr's zeal enthralled.
We'll tell you all, O sky, wait till the time arrives,
How can we at this stage, our secret plans unveil?
O martyrs in the nation's cause, kudos to your sacrifice.
Even in the enemy camp they talk of you with praise.
Fired by patriotic fervour, many a maddened youth
Has gathered at the crossing, itching for the cross.
Why are they mute and silent? no whisper, no talk,
Everyone that I see has got his lips locked.

Sar faroshi ki tamanna ab hamaare dil mein hai,
Dekhna hai zor kitna baazoo-e-qaatil main hai!
Rahraw-e-rah-e-mohabbat rah na jana rah mein,
Lazzat-e-sahra nawardi doori-e-manzil mein hai.
Yoon khara maqtal mein qaatil kah raha hai baar baar,
Kya tamanna-e-shahaadat bhi kisi ke dil mein hai
Waqt aane par bata denge tujhe ai aasmaan,
Hum abhi se kya bataaen kya hamaare dil mein hai.
Ai shaheed-e-mulk-o-millat tere jazbon par nissar,
Teri qurbaani ka charcha ghair ki mehfil mein hai.
Kheinch kar laai hai sabko qatal hone ki umeed,
Aashiqon ka aaj jamghat koocha-e-qaatil mein hai.
Ek se karta nahin koi doosra koi bhi baat,
Dekhta hoon main jise woh chup tiri mehfil mein hai.
Ram Parshad was a man with a soul, as Bhagat Singh noted in prison. Both concluded that "bombs cannot secure our purpose". Men like these were sent to the gallows by the British. Urdu was sent to the gallows by Congressmen in complicity with the Sangh Parivar. Jafri told this writer how distressed he was that children from families whose mother tongue was Urdu for generations, could not learn it in Uttar Pradesh. Scholars who love Urdu should bring out a Black Book documenting the linguistic genocide.

Another..version..of..Sarfaroshi

Sar faroshi ki tamanna ab hamaare dil mein hai,
Dekhna hai zor kitna baazoo-e-qaatil main hai!
Rahraw-e-rah-e-mohabbat rah na jana rah mein,
Lazzat-e-sahra nawardi doori-e-manzil mein hai.
Yoon khara maqtal mein qaatil kah raha hai baar baar,
Kya tamanna-e-shahaadat bhi kisi ke dil mein hai
Waqt aane par bata denge tujhe ai aasmaan,
Hum abhi se kya bataaen kya hamaare dil mein hai.
Ai shaheed-e-mulk-o-millat tere jazbon par nissar,
Teri qurbaani ka charcha ghair ki mehfil mein hai.
Kheinch kar laai hai sabko qatal hone ki umeed,
Aashiqon ka aaj jamghat koocha-e-qaatil mein hai.
Ek se karta nahin koi doosra koi bhi baat,
Dekhta hoon main jise woh chup tiri mehfil mein hai.

Translation:
We are now raring to die for our country's sake
Let's see how much of strength the assassin can display!
O traveller on the path of love, do not drop mid-way,
It is the distance of the goal that glorifies the chase.
Standing by the gallows the hangman makes a call,
Come, if there be any, by the martyr's zeal enthralled.
We'll tell you all, O sky, wait till the time arrives,
How can we at this stage, our secret plans unveil?
O martyrs in the nation's cause, kudos to your sacrifice.
Even in the enemy camp they talk of you with praise.
Fired by patriotic fervour, many a maddened youth
Has gathered at the crossing, itching for the cross.
Why are they mute and silent? no whisper, no talk,
Everyone that I see has got his lips locked.
 

सरफ़रोशी की तमन्ना (गुलाल)



ओ रे बिस्मिल काश आते आज तुम हिन्दोस्ताँ
देखते कि मुल्क़ सारा ये टशन में थ्रिल में है

आज का लौंडा ये कहता हम तो बिस्मिल थक गये
अपनी आज़ादी तो भइया लौंडिया के तिल में है



आज के जलसों में बिस्मिल एक गूँगा गा रहा
और बहरों का वो रेला नाचता महफ़िल में है

हाथ की खादी बनाने का ज़माना लद गया
आज तो चड्ढी भी सिलती इंगलिसों की मिल में है

Thanx to http://nindapuran.wordpress.com

English Translation



The desire for sacrifice is now in our hearts
We shall now see what strength there is in the boughs of the enemy.
Hey country, Why is no one speaking to each other?
Whoever I see, is gathered quiet in my party...
O martyr of country, of nation, I submit myself to thee
For yet even the enemy speaks of thy courage
The desire for struggle is in our hearts...
When the time comes, we shall show thee, O heaven
For why should we tell thee now, what lurks in our hearts?
We are pulled to service, by the hope of blood, of vengeance
Yea, by our love for nation divine, we go to the streets of the enemy
The desire for struggle is in our hearts...
Armed does the enemy sit, ready to open fire
Ready too are we, our bosoms thrust out to him
With blood we shall play Holi, if our nation need us
The desire for struggle is in our hearts...
No sword can sever hands that have the heat of battle within,
No threat can bow heads that have risen so...
Yea, for in our insides has risen a flame,
and the desire for struggle is in our hearts...
Set we out from our homes, our heads shrouded with cloth,
Taking our lives in our hands, do we march so...
In our assembly of death, life is now but a guest
The desire for struggle is in our hearts...
Stands the enemy in the gallows thus, asking,
Does anyone wish to be sacrificed?...
With a host of storms in our heart, and with revolution in our breath,
We shall knock the enemy cold, and no one shall stop us...
What good is a body that does not have passionate blood,
How can one conquer a storm while in a shored boat.
The desire for struggle is in our hearts,
We shall now see what strength there is in the boughs of the enemy.

सरफ़रोशी की तमन्ना


सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए-क़ातिल में है
(ऐ वतन,) करता नहीं क्यूँ दूसरी कुछ बातचीत,
देखता हूँ मैं जिसे वो चुप तेरी महफ़िल में है
ऐ शहीद-ए-मुल्क-ओ-मिल्लत, मैं तेरे ऊपर निसार,
अब तेरी हिम्मत का चरचा ग़ैर की महफ़िल में है
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
वक़्त आने पर बता देंगे तुझे, ए आसमान,
हम अभी से क्या बताएँ क्या हमारे दिल में है
खेँच कर लाई है सब को क़त्ल होने की उमीद,
आशिकों का आज जमघट कूचा-ए-क़ातिल में है
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
है लिए हथियार दुश्मन ताक में बैठा उधर,
और हम तैयार हैं सीना लिए अपना इधर.
ख़ून से खेलेंगे होली अगर वतन मुश्क़िल में है,
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
हाथ, जिन में है जूनून, कटते नही तलवार से,
सर जो उठ जाते हैं वो झुकते नहीं ललकार से.
और भड़केगा जो शोला सा हमारे दिल में है,
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
हम तो घर से ही थे निकले बाँधकर सर पर कफ़न,
जाँ हथेली पर लिए लो बढ चले हैं ये कदम.
ज़िंदगी तो अपनी मॆहमाँ मौत की महफ़िल में है,
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
यूँ खड़ा मक़्तल में क़ातिल कह रहा है बार-बार,
क्या तमन्ना-ए-शहादत भी किसी के दिल में है?
दिल में तूफ़ानों की टोली और नसों में इन्कलाब,
होश दुश्मन के उड़ा देंगे हमें रोको न आज.
दूर रह पाए जो हमसे दम कहाँ मंज़िल में है,
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
वो जिस्म भी क्या जिस्म है जिसमे न हो ख़ून-ए-जुनून
क्या लड़े तूफ़ान से जो कश्ती-ए-साहिल में है
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए-क़ातिल में