मेरे माता-पिता ने सहायता की । मेरा समय अच्छी प्रकार व्यतीत हो गया । माताजी की पूँजी तो मैंने नष्ट कर दी । पिताजी से सरकार की ओर से कहा गया कि लड़के की गिरफ्तारी के वारंट की पूर्ति के लिए लड़के का हिस्सा, जो उसके दादा की जायदाद होगी, नीलाम किया जाएगा । पिताजी घबड़ाकर दो हजार के मकान को आठ सौ में तथा और दूसरी चीजें भी थोड़े दामों में बेचकर शाहजहाँपुर छोड़कर भाग गए । दो बहनों का विवाह हुआ । जो कुछ रहा बचा था, वह भी व्यय हो गया । माता-पिता की हालत फिर निर्धनों जैसी हो गई । समिति के जो दूसरे सदस्य भागे हुए थे, उनकी बहुत बुरी दशा हुई । महीनों चनों पर ही समय काटना पड़ा । दो चार रुपये जो मित्रों तथा सहायकों से मिल जाते थे, उन्हीं पर ही गुजर होता था । पहनने के कपड़े तक न थे । विवश हो रिवाल्वर तथा बन्दूकें बेचीं, तब दिन कटे । किसी से कुछ कह भी न सकते थे और गिरफ्तारी के भय के कारण कोई व्यवस्था या नौकरी भी न कर सकते थे ।
उसी अवस्था में मुझे व्यवसाय करने की सूझी। मैंने अपने सहपाठी तथा मित्र श्रीयुत सुशीलचन्द्र सेन, जिनका देहान्त हो चुका था, की स्मृति में बंगला भाषा का अध्ययन किया । मेरे छोटे भाई का जन्म हुआ तो मैंने उसका नाम सुशीलचन्द्र रखा । मैंने विचारा कि एक पुस्तकमाला निकालूं, लाभ भी होगा । कार्य भी सरल है । बंगला से हिन्दी में पुस्तकों का अनुवाद करके प्रकाशित करवाऊँगा । अनुभव कुछ भी नहीं था । बंगला पुस्तक 'निहिलिस्ट रहस्य' का अनुवाद प्रारम्भ कर दिया । जिस प्रकार अनुवाद किया, उसका स्मरण कर कई बार हंसी आ जाती है । कई बैल, गाय तथा भैंस लेकर ऊसर में चराने के लिए जाया करता था । खाली बैठा रहना पड़ता था, अतएव कापी-पैंसिल साथ ले जाता और पुस्तक का अनुवाद किया करता था । पशु जब कहीं दूर निकल जाते तब अनुवाद छोड़ लाठी लेकर उन्हें हकारने जाया करता था । कुछ समय के लिए एक साधु की कुटी पर जाकर रहा । वहाँ अधिक समय अनुवाद करने में व्यतीत करता था । खाने के लिए आटा ले जाता था । चार-पाँच दिन के लिए आटा इकट्ठा रखता था । भोजन स्वयं पका लेता था । अब पुस्तक ठीक हो गई, तो 'सुशील-माला' के नाम से ग्रन्थमाला निकाली । पुस्तक का नाम 'बोलशेविकों की करतूत' रखा । दूसरी पुस्तक 'मन की लहर' छपवाई । इस व्यवसाय में लगभग पांच सौ रुपये की हानि हुई । जब राजकीय घोषणा हुई और राजनैतिक कैदी छोड़े गए, तब शाहजहाँपुर आकर कोई व्यवसाय करने का विचार हुआ, ताकि माता-पिता की कुछ सेवा हो सके । विचार किया करता था कि इस जीवन में अब फिर कभी आजादी से शाहजहाँपुर में विचरण न कर सकूँगा, पर परमात्मा की लीला अपार है । वे दिन आये । मैं पुनः शाहजहाँपुर का निवासी हुआ ।
No comments:
Post a Comment