Wednesday, August 11, 2010

10-हथियारों की खरीद

अधिकतर लोगों का विचार है कि देशी राज्यों में हथियार (रिवाल्वर, पिस्तौल तथा राइफलें इत्यादि) सब कोई रखता है, और बन्दूक इत्यादि पर लाइसेंस नहीं होता । अतएव इस प्रकार के अस्‍त्र बड़ी सुगमता से प्राप्‍त हो सकते हैं । देशी राज्यों में हथियारों पर कोई लाइसेंस नहीं, यह बात बिल्कुल ठीक है, और हर एक को बंदूक इत्यादि रखने की आजादी भी है । किन्तु कारतूसी हथियार बहुत कम लोगों के पास रहते हैं, जिसका करण यह है कि कारतूस या विलायती बारूद खरीदने पर पुलिस में सूचना देनी होती है । राज्य में तो कोई ऐसी दुकान नहीं होती, जिस पर कारतूस या कारतूसी हथियार मिल सकें । यहाँ तक कि विलायती बारूद और बंदूक की टोपी भी नहीं मिलती, क्योंकि ये सब चीजें बाहर से मंगानी पड़ती हैं । जितनी चीजें इस प्रकार की बाहर से मंगायी जाती हैं, उनके लिए रेजिडेंट (गवर्नमेंट का प्रतिनिधि, जो रियासतों में रहता है) की आज्ञा लेनी पड़ती है । बिना रेजिडेण्ट की मंजूरी के हथियारों संबंधी कोई चीज बाहर से रियासत में नहीं आ सकती । इस कारण इस खटखट से बचने के लिए रियासत में ही टोपीदार बंदूकें बनती हैं, और देशी बारूद भी वहीं के लोग शोरा, गन्धक तथा कोयला मिलाकर बना लेते हैं । बन्दूक की टोपी चुरा-छिपाकर मँगा लेते हैं । नहीं तो टोपी के स्थान पर भी मनसल और पुटाश अलग-अलग पीसकर दोनों को मिलाकर उसी से काम चलाते हैं । हथियार रखने की आजादी होने पर भी ग्रामों में किसी एक-दो धनी या जमींदार के यहाँ टोपीदार बंदूक या टोपीदार छोटी पिस्तौल होते हैं, जिनमें ये लोग रियासत की बनी हुई बारूद काम में लाते हैं । यह बारूद बरसात में सील खा जाती है और काम नहीं देती । एक बार मैं अकेला रिवाल्वर खरीदने गया । उस समय समझता था कि हथियारों की दुकान होगी, सीधे जाकर दाम देंगे और रिवाल्वर लेकर चले आयेंगे । प्रत्येक दुकान देखी, कहीं किसी पर बन्दूक इत्यादि का विज्ञापन या कोई दूसरा निशान न पाया । फिर एक ताँगे पर सवार होकर सब शहर घूमा । ताँगे वाले ने पूछा कि क्या चाहिए । मैंने उससे डरते-डरते अपना उद्देश्य कहा । उसी ने दो-तीन दिन घूम-घूमकर एक टोपीदार रिवाल्वर खरीदवा दिया और देशी बनी हुई बारूद एक दुकान से दिला दी । मैं कुछ जानता तो था नहीं, एकदम दो सेर बारूद खरीदी, जो घर पर सन्दूक में रखे-रखे बरसात में सील खाकर पानी पानी हो गई । मुझे बड़ा दुःख हुआ । दूसरी बार जब मैं क्रान्तिकारी समिति का सदस्य हो चुका था, तब दूसरे सहयोगियों की सम्मति से दो सौ रुपये लेकर हथियार खरीदने गया । इस बार मैंने बहुत प्रयत्‍न किया तो एक कबाड़ी की-सी दुकान पर कुछ तलवारें, खंजर, कटार तथा दो-चार टोपीदार बन्दूकें रखी देखीं । दाम पूछे । इसी प्रकार वार्तालाप करके पूछा कि क्या आप कारतूसी हथियार नहीं बेचते या और कहीं नहीं बिकते? तब उसने सब विवरण सुनाया । उस समय उसके पास टोपीदार एक नली के छोटे-छोटे दो पिस्तौल थे । मैंने वे दोनों खरीद लिये । एक कटार भी खरीदी । उसने वादा किया कि यदि आप फिर आयें तो कुछ कारतूसी हथियार जुटाने का प्रयत्‍न किया जाये । लालच बुरी बला है, इस कहावत के अनुसार तथा इसलिए भी कि हम लोगों को कोई दूसरा ऐसा जरिया भी न था, जहाँ से हथियार मिल सकते, मैं कुछ दिनों बाद फिर गया । इस समय उसी ने एक बड़ा सुन्दर कारतूसी रिवाल्वर दिया । कुछ पुराने कारतूस दिये । रिवाल्वर था तो पुराना, किन्तु बड़ा ही उत्तम था । दाम उसके नये के बराबर देने पड़े । अब उसे विश्‍वास हो गया कि यह हथियारों के खरीदार हैं । उसने प्राणपण से चेष्‍टा की और कई रिवाल्वर तथा दो-तीन राइफलें जुटाई । उसे भी अच्छा लाभ हो जाता था । प्रत्येक वस्तु पर वह बीस-बीस रुपये मुनाफा ले लेता था । बाज-बाज चीज पर दूना नफा खा लेता था । इसके बाद हमारी संस्था के दो-तीन सदस्य मिलकर गये । दुकानदार ने भी हमारी उत्कट इच्छा को देखकर इधर-उधर से पुराने हथियारों को खरीद करके उनकी मरम्मत की, और नया-सा करके हमारे हाथ बेचना शुरू किया । खूब ठगा । हम लोग कुछ जानते नहीं थे । इस प्रकार अभ्यास करने से कुछ नया पुराना समझने लगे । एक दूसरे सिक्लीगर से भेंट हुई । वह स्वयं कुछ नहीं जानता था, किन्तु उसने वचन दिया कि वह कुछ रईसों से हमारी भेंट करा देगा । उसने एक रईस से मुलाकात कराई जिसके पास एक रिवाल्वर था । रिवाल्वर खरीदने की हमने इच्छा प्रकट की । उस महाशय ने उस रिवाल्वर के डेढ़ सौ रुपये मांगे । रिवाल्वर नया था । बड़ा कहने सुनने पर सौ कारतूस उन्होंने दिये और 155 रुपये लिये । 150 रुपये उन्होंने स्वयं लिए, 5 रुपये कमीशन के तौर पर देने पड़े । रिवाल्वर चमकता हुआ नया था, समझे अधिक दामों का होगा । खरीद लिया । विचार हुआ कि इस प्रकार ठगे जाने से काम न चलेगा । किसी प्रकार कुछ जानने का प्रयत्‍न किया जाए । बड़ी कौशिश के बाद कलकत्ता, बम्बई से बन्दूक-विक्रेताओं की लिस्टें मांगकर देखीं, देखकर आंखें खुल गईं । जितने रिवाल्वर या बन्दूकें हमने खरीदी थीं, एक को छोड़, सबके दुगने दाम दिये थे । 155 रुपये के रिवाल्वर के दाम केवल 30 रुपये ही थे और 10 रुपये के सौ कारतूस इस प्रकार कुल सामान 40 रुपये का था, जिसके बदले 155 रुपये देने पड़े । बड़ा खेद हुआ । करें तो क्या करें ! और कोई दूसरा जरिया भी तो न था ।

कुछ समय पश्‍चात् कारखानों की लिस्टें लेकर तीन-चार सदस्य मिलकर गये । खूब जांच-खोज की । किसी प्रकार रियासत की पुलिस को पता चल गया । एक खुफिया पुलिस वाला मुझे मिला, उसने कई हथियार दिलाने का वायदा किया, और वह पुलिस इंस्पेक्टर के घर ले गया । दैवात् उस समय पुलिस इंस्पेक्टर घर मौजूद न थे । उनके द्वार पर एक पुलिस का सिपाही था, जिसे मैं भली-भाँति जानता था । मुहल्ले में खुफिया पुलिस वालों की आँख बचाकर पूछा कि अमुक घर किसका है ? मालूम हुआ पुलिस इंस्पेक्टर का ! मैं इतस्ततः करके जैसे-जैसे निकल आया और अति शीघ्र अपने टहरने का स्थान बदला । उस समय हम लोगों के पास दो राइफलें, चार रिवाल्वर तथा दो पिस्तौल खरीदे हुए मौजूद थे । किसी प्रकार उस खुफिया पुलिस वाले को एक कारीगर से जहाँ पर कि हम लोग अपने हथियारों की मरम्मत कराते थे, मालूम हुआ कि हम में से एक व्यक्‍ति उसी दिन जाने वाला था, उसने चारों ओर स्टेशन पर तार दिलवाए । रेलगाड़ियों की तलाशी ली गई । पर पुलिस की असावधानी के कारण हम बाल-बाल बच गए ।

रुपये की चपत बुरी होती है। एक पुलिस सुपरिटेण्डेंट के पास एक राइफल थी । मालूम हुआ वह बेचते हैं । हम लोग पहुँचे । अपने आप को रियासत का रहने वाला बतलाया । उन्होंने निश्‍चय करने के लिए बहुत से प्रश्‍न पूछे, क्योंकि हम लोग लड़के तो थे ही । पुलिस सुपरिटेण्डेंट पेंशनयाफ्ता, जाति के मुसलमान थे । हमारी बातों पर उन्हें पूर्ण विश्‍वास न हुआ । कहा कि अपने थानेदार से लिखा लाओ कि वह तुम्हें जानता है । मैं गया । जिस स्थान का रहने वाला बताया था, वहाँ के थानेदार का नाम मालूम किया, और एक-दो जमींदारों के नाम मालूम करके एक पत्र लिखा कि मैं उस स्थान के रहने वाले अमुक जमींदार का पुत्र हूँ और वे लोग मुझे भली-भाँति जानते हैं । उसी पत्र पर जमींदारों के हिन्दी में और पुलिस दारोगा के अंग्रेजी में हस्ताक्षर बना, पत्र ले जा कर पुलिस कप्‍तान साहब को दिया । बड़े गौर से देखने के बाद वह बोले, "मैं थानेदार से दर्याफ्त कर लूं । तुम्हें भी थाने चलकर इत्तला देनी होगी कि राइफल खरीद रहे हैं ।" हम लोगों ने कहा कि हमने आपके इत्मीनान के लिए इतनी मुसीबत झेली, दस-बारह रुपये खर्च किए, अगर अब भी इत्मीनान न हो तो मजबूरी है । हम पुलिस में न जायेंगे, राइफल के दाम लिस्ट में 150 रुपये लिखे थे, वह 250 रुपये मांगते थे, साथ में दो सौ कारतूस भी दे रहे थे । कारतूस भरने का सामान भी देते थे, जो लगभग 50 रुपये का होता है, इस प्रकार पुरानी राइफल के नई के समान दाम माँगते थे । हम लोग भी 250 रुपये देते थे । पुलिस कप्‍तान ने भी विचारा कि पूरे दाम मिल रहे हैं । स्वयं वृद्ध हो चुके थे । कोई पुत्र भी न था । अतएव 250 रुपये लेकर राइफल दे दी । पुलिस में कुछ पूछने न गए । उन्हीं दिनों राज्य के एक उच्च पदाधिकारी के नौकर से मिलकर उनके यहाँ से रिवाल्वर चोरी कराया । जिसके दाम लिस्ट में 75 रुपये थे, उसे 100 रुपये में खरीदा । एक माउजर पिस्तौल भी चोरी कराया, जिसके दाम लिस्ट में उस समय 200 रुपये थे । हमें माउजर पिस्तौल की प्राप्‍ति की बड़ी उत्कट इच्छा थी । बड़े भारी प्रयत्‍न के बाद यह माउजर पिस्तौल मिला, जिसका मूल्य 300 रुपये देना पड़ा । कारतूस एक भी न मिला । हमारे पुराने मित्र कबाड़ी महोदय के पास माउजर पिस्तौल के पचास कारतूस पड़े थे । उन्होंने बड़ा काम दिया । हम में से किसी ने भी पहले माउजर पिस्तौल को देखा भी न था । कुछ न समझ सके कि कैसे प्रयोग किया जाता है । बड़े कठिन परिश्रम से उसका प्रयोग समझ में आया ।

हमने तीन राइफलें, एक बारह बोर की दोनाली कारतूस बन्दूक, दो टोपीदार बन्दूकें, तीन टोपीदार रिवाल्वर और पाँच कारतूसी रिवाल्वर खरीदे । प्रत्येक हथियार के साथ पचास या सौ कारतूस भी ले लिए । इन सब में लगभग चार हजार रुपये व्यय हुए । कुछ कटार तथा तलवारें इत्यादि भी खरीदी थीं ।

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